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बनगार
अम
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को अपना मरण मानने लगता है। धर्मके आयतन अथवा कार्यके साधक पुरुषोंको तीर्थ कहते हैं । अत एव तीर्थ दो प्रकारके हैं। एक धर्पसमवायी, दूसरे कार्य समवायी । इन दोनो ही प्रकारके तीर्थोंमें यदि द्रव्यका विनियोग होजाय तो वह कंजूस समझता है कि हाय मैं तो मरगया-मेरा धनरूपी माण तो निकल ही गया । तथा इसी प्रकार धनकी गृद्धिसे आकुलित रहनेवाला व्यक्ति निरंतर इतिकर्तव्यताकी चिंताओंसे ग्रस्त रहा करना है। मुझको यह कार्य इस प्रकारसे करना है और यह इस प्रकारसे करना है तथा इसके बाद अमुक कार्य करूंगा और उसके बाद अमुक कार्य करूंगा और उसको उस तरहसे करूंगा आदि अनेक प्रकारकी तर्कणाएं धनलुब्ध पुरुषके पीछे लगी ही रहती हैं।
भावार्थ-धनका लोभी पुरुष दिनरात चिन्ताओंसे संक्लिष्ट रहता और उसका संचय करनेमें ही लगा रहता है। वह सत्पात्रोंमें भी उसका विनियोग करना नहीं चाहता। यदि कदाचित् कोई अर्थी याचना करने आता भी है तो उसके ऊपर निषेधसूचक शब्द कहकर वह वज्र पटक देता है । द्धिवश जो याचना करने में प्रवृत्त होता है वह स्वयं अधमरा होजाता है, यथा
गतेभङ्गः स्वरोदीनो गात्रस्वेदो महद्भयम ।
मरणे यानि चिन्हानि तानि चिन्हानि याचने ॥ गतिमें स्खलन होना, स्वरमें दीनता आजाना, शरीरमें पसीना छूटना, और महान् भयका उत्पन्न होना आदि जो जो चिन्ह मरते समय होते हैं वे ही चिन्ह याचनाके समयमें भी हुआ करते हैं। किंतु इसपर भी जो लोग अर्थियोंको निषेध कर देते हैं उनकी गृद्धिका तो ठिकाना ही क्या है । इस प्रकार धनके निमित्तसे और अनेक दोषोंके सिवाय दैन्यभाषण निर्दयता कृपणता और अनवस्थितचित्तता ये चार महान् दोष भी उत्पन्न हुआ करते हैं।
धनके संचय रक्षण आदि करनेमें तीव्र दुःख ही उत्पन्न होता है अत एव उसकी प्राप्तिकेलिये उद्यम करनेका निषेध करते हैं:
बध्याय
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