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जनगार
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भावार्थ-जो पुरुष अपनी धनसंपत्तिके गर्वसे उत्तरदिशाके अधिपति कुवेरका तिरस्कार करदेता है या करना चाहता है वह मानसरोवरकी लहरियोंसे पूर्ण उत्तर दिशाको भला किस तरह छोड सकता है । वह अवश्य ही कैलासके साथ साथ उत्तर दिशाको भी अधिगत करना चाहता है । इसी प्रकार कुप्यादिक परिग्रहोंके निमित्तसे जिसको अभिमान जागृत हो गया है और इसीलिये जो उन्हीके आडम्बर बढानेमें लीन रहता है वह व्यक्ति दूपरे बडे बडे सम्पत्तिशालियों को भी अपने सामने तुच्छ समझने लगता है और इस तरहसे उनका उपहास किया करता है जैसे कि निरंतर ताण्डव नृत्यकी विचित्रता दिखानेके लिये अभिनय करनेवाले नटका बडे बडे शिष्ट पुरुष भी उपहास किया करते हैं । अथवा उपहास करनेके लिये ही-यह दिखानेकेलिये कि मेरी बराबर ऋद्धिधर कोई भी नहीं है। वह परिग्रहोंका आडम्बर बढाता है। क्या ऐसे पुरुषको कभी भी अनेक चिन्ताओंके जालसे युक्त अभिलाषाएं छोड़ सकती हैं ? कभी नहीं। वह दिनरात भविष्यत्-अर्थको प्राप्त करने की आशासे चिन्तित ही रहा करता है। उसको कुप्य धान्य शयन आसन और यानादिकके संग्रह करनेकी चिन्ता लगी ही रहती है।
इस प्रकार इन परिग्रहोंके निमित्त अभिमान उत्पन्न होता और दूसरोंको तुच्छ समझनेकी बुद्धि जागृत होती तथा उनका आडम्बर चढानेकी चिन्ताओंसे संक्लेश परिणाम उत्पन्न हुआ करते हैं।
सोना और चांदीको छोडकर बाकीकी धातुओं अथवा वस्त्रादिक द्रव्योंको कुप्य कहते हैं। गेंहू चावल आदि अन्नको धान्य कहते हैं । पलंग पालना आराम कुर्सी आदि सोनेके साधनोंको शयन कहते हैं । मुंढा तख्त पट्टा सिंहासन कुर्मी बेंच आदि बैठनेके साधनोंको आसन कहते हैं । पालकी पीनस तापझाम विमान आदि बैठकर जानेके साधनोंको यान कहते हैं । हींग मजीठ आदि मसाले अथवा किराने के सामानको भाण्ड कहते हैं।
अध्याय
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१-२ वस्तुतः इन शब्दोंका अर्थ ऐसा होता है कि जिसपर सोया जाय सो शयन और जिसपर बैठा जाय सो आ. सन । अत एव भूमि या पत्थरकी शिलाको भी शयन आसन कह सकते हैं। .