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|| धर्म
अनगार
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जीव रहता है आगे नहीं"। इन दोनों ही सिद्धांतोंको आक्षेत्रश्य कहते हैं । इस प्रकार बौद्धोंका नैरात्म्यवाद यद्यपि कल्पित है किंतु यदि वह असत्य न होता तथा चार्वाकोंका भी आक्षेत्रज्य सिद्धांत कल्पित नहीं होता तो संसारी शरीरधारियों के लिये यह क्षेत्र-धान्यादिकके उत्पन्न होनेका स्थान भी जरूर ही ऐहिक सुखसंपत्तियोंको उत्पन्न कर कल्याणका कारण हो जाता । किंतु यदि यह बात नहीं है और ये उक्त दोनों ही सिद्धान्त मिथ्या हैं तथा जीवपदार्थ शश्वत् रहनेवाला है तब तो इस क्षेत्र परिग्रहको नरकादिक दुर्गतियोंका ही कारण समझना चाहिये । क्योंकि इसके विषयमें अनेक प्रकारका बहुतसा आरम्भ पुनः पुनः करना पड़ता है जिससे कि षट्कायिक जीवोंका घात ही होता है । खेतके जोतने साचने निराने काटने आदिमें जो पापकर्मोंका अनुबंध होता और उससे हिंसा होती है उसीके निमित्त प्राणियोकों दुर्गतियोंका भोग करना पडता है।
कुप्यादिक परिग्रहोंके निमित्तसे जो मनुष्यमें औद्धत्य आजाता है अथवा उसको आशाओंका अनुबन्धन हुआ करता है उसको बताते हैं:--
यः कुप्यधान्यशयनासनयानभाण्ड,-- काण्डैकडम्बरितताण्डवकर्मकाण्डः । वैतण्डिको भवति पुण्यजनेश्वरेपि, तं मानसोर्मिजटिलोज्झति नोत्तराशाः॥ १२८॥
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अध्याय
कुप्य धान्य शयन आसन यान और भाण्ड इन परिग्रहोंके संघात-समूहसे अपने ताण्डव कर्मकाण्डको प्रकृष्टतया आडम्बरयुक्त बनानेवाला जो व्यक्ति धन और ऋद्धियोंके अधीश्वर-कुवेरका भी उपहास करने लगता है उस व्यक्तिको नाना विकल्पजालोंसे आन्वित उत्तराशा- भविष्यत् विषयोंके लिये बढती हुई तत्रि अभिलाषा छोड नहीं सकती।
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