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करती हैं। इस बातका निरूपण कर यह बात व्यक्त करते हैं कि इस तरहकी वल्लभाओंका जबाओंको पाले से ही परिग्रहण न करना चाहिये।
तैरश्चोपि वधू प्रदूषयति पुंयोगस्तथेति प्रिया,सामीप्याय तुजेप्यऽसूयति सदा तद्विप्लवे दूयते । तद्विप्रीतिभयान्न जातु सजति ज्यायोभिरिच्छन्नपि,
त्यक्तुं सद्म कुतोपि जीर्यतितगं तत्रैव तद्यन्त्रितः ॥११३ ॥ औरोंकी तो बात ही क्या कहें। अपने खास पुत्रसे भी लोक, यदि वह उनकी प्रिया-वल्लभोक निकट रहा करता हो तो असूया करने लगते हैं। वह चाहे जितना भी गुणी क्यों न हो अपनी प्रेयसीके निकट सहवास करनेके कारण उससे रुष्ट हो लोक ईर्ष्यासे उसके गुणोंमें भी दोषोंका आरोपण किया करते हैं । और यह बात ठोक भी है; क्योंकि देखते हैं कि मनुष्योंकी तो बात ही क्या, तिर्यच पुरुषोंका भी संयोम में धुओंको अच्छी तरह दृषित कर दिया करता है। जैसा कि प्रमंजन चरितादिक शास्त्रोंमें प्रसिद्ध है। प्रभ जन चरित्रमें उस रानीकी कथा विदित है जो कि बन्दसर आसक्त हो गई थी। इसी प्रकार लोकोंके हृदयमें अपनी प्रियतमाका शीलभंग देखलेनेपर अथवा सुनलेनेपर सदा ही परिताप बना रहा करता है। वे नित्य ही उससे कुढते रहते हैं। तथा स्त्रीके निमित्तसे ही लोक इस भयसे कि कहीं प्रियाके प्रेमका भंग न हो जाय धर्माचार्यादिक गुरुजनोंकी भी संगतिमें नहीं रह सकता । वह सत्संगतिके फलसे वञ्चित रहता है । और किसी पुत्रवियोगादिक अगाढ कारणको पाकर घरका परित्याग करदेनेकी इच्छा करते हुए भी वह अपनी प्रियारूपी शृंखलासे जकडा रहनेके कारण उसको छोड नहीं सकता और घरमें पड़ा हुआ ही जरासे जर्जरित हो जाया करता है। इन सब बातोंको देख सुनकर विदग्ध पुरुष स्वयं ही ऐसा तात्पर्य समझ सकते हैं कि मुमुक्षुओंको पहलेसे ही स्वीका परिग्रहण न करना चाहिये । जसा कि कहा भी है कि
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