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बनगार
भी-अनेक प्रकारके कष्ट उपस्थित होनेपर भी निष्कपटरूपमे स्नेह करता और अवलम्ब देता है उसीको लोकमें मित्र कहते हैं । तत्त्वदृष्टि से यह भी आत्माको मोह ही उत्पन्न करता है । अत एव मुमुक्षुओंकेलिये वह भी त्याज्य ही है। फिर भी जबतक समस्त परिग्रहके छोडनेकी सामर्थ्य नहीं है तब तक उनको ऐसे सन्मित्रोंका आश्रय लेना चाहिये जो कि परलोकके विषयमें सहायता करनेवाले और आत्मा तथा शरीरके विशिष्ट भेदज्ञानको प्राप्त करानेवाले हैं।
जैसा कि कहा मी है कि:--
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सङ्गः सर्वात्मना त्याज्यो मुनिमिर्मोक्तुमिच्छुभिः । . सचेत् त्यक्तुं न शक्येत कार्यस्तात्मदर्शिभिः ॥ .
मुमुक्षु मुनियों को सङ्ग रखना सर्वथा वर्ण्य है । किन्तु जबतक वे उसको सर्वथा नहीं छोड़ सकते तबतक डन्हे आत्मदर्शियों के साथ सङ्ग रखना चाहिये । और भी कहा है कि:--
सङ्गः सर्वात्मना त्याज्यः स चेत् त्यक्तुं न शक्यते । स सद्भिः सह कर्तव्यः सन्तः सङ्गस्य भेषजम् ।।
अध्याय
वस्तुतः सङ्ग सर्वथा छोडदेनेके ही योग्य है। किंतु जब तक वह छोडा नहीं जा सकता तब तक सत्पुरुषों के साथ वह करना या रखना चाहिये । कोंकि सत्पुरुष सङ्गकी औषध हैं। सङ्गतिके निमित्तसे जो दोष उत्पन्न होते हैं वे सब सत्पुरुषों के प्रसादसे दूर हो सकते हैं । अत एव वे आत्मकल्याणके सहायक हैं।
अत्यंत भक्तियुक्त भी भृत्य अकृत्य करानेमें ही अग्रेसर हो जाता है अत एव वह भी उपादेय नहीं है इस बातको दृष्टांतद्वारा बताते हैं:--