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S' धर्म
बनगार
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शिष्योंका शासन करनेमें अथवा उनको शिक्षादिक देने में भी जो कभी कभी क्रोधका उद्भव हो आमा करता है उसपर ध्यान दिलाते हैं
यः शिष्यते हितं शश्वदन्तेवासी सुपुत्रवत् ।
सोप्यन्तेवासिनं कोपं छोपयत्यन्तरान्तरा ॥ १२२ ॥ जिस शिष्यको सत्पुत्रकी तरहसे गुरुजन दिनरात हित-आत्मकल्याणकी शिक्षा दिया करते हैं। देखते हैं कि वह भी कभी कभी-बीच बीचमें इस चाण्डाल क्रोधका स्पर्श करादिया करता है।
भावार्थ-कभी कभी ऐसा भी होता है कि योग्य भी शिष्य गुरु आदिका विनयादिक करनेमें प्रवृत्त नहीं हुआ करता । ऐसे समय में गुरुजनोंको भी कदाचित् क्रोधका उद्भव होजाता है । जिससे कि उनका अकल्याण ही होता है। अत एव शिष्य परिग्रह भी साधुओंकेलिये असंग्रहणीय है । जिस प्रकार उच्च व उत्तम पुरुष चाण्डालका स्पर्श नहीं किया करते और न करना चाहते हैं, उस प्रकार साधुजन भी क्रोधादिकका स्पर्श नहीं किया करते और न करना चाहते हैं। किंतु शिष्यादिकका सम्बन्ध रहनेपर उसका स्पर्श होजाया करता है। अतएव मुमुक्षुओंके लिये शिष्यपरिग्रह भी त्याज्य ही है।
चतुष्पद परिग्रहका निषेध करते हैंद्विपदैरथ सत्संगश्चेत् किं तर्हि चतुष्पदैः ।
तिक्तमप्यामसन्नाग्नेर्नायुष्यं किं पुनघृतम् ॥ १२३ ॥ जब द्विपदों-मनुष्यादिकोंके साथ किया गया भी संग-संसर्ग असत्-अप्रशस्त -अत्यंत अपायका ही
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'बध्याय