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धर्म
बनगार
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जो तृष्णासंततिके अधीन होकर-निरंतर और बढती हुई गृद्धि के वशमें पडकर जो मेरे इस दुःखोंके एक मात्र--असाधारण कारण शरीरके उत्पन्न होनेमें बीजभूत है उस पिताका कल्याण हो । और इस शरीरके ही धारण - गर्भाधान तथा पालन पोषण और वर्धनादिक उपकरणों में ही जो मिथ्या मोहजालको बढाती हुई निरंतर प्रयत्न किया करती है उस माताका भी भला हो। ऐसे पिता माताको दूर ही से नमस्कार है जो कि दुःखोंके प्रधान हेतुको उत्पन्न करनेवाले और उल्टे उसीके पालन पोषणादिकमें मोहित बनानेवाले हैं। क्योंकि समस्त दुःखोंका मूल या पिता मातासे उत्पन्न हुआ शरीर ही है, यह बात स्पष्ट है। गुणभद्र स्वामीने भी कहा है-" सर्वापदां पदमिदं जननं जनानाम्" । मनुष्यों का शरीर ही समस्त आपत्तियों का स्थान है। जिन्होंने उत्तरोत्तर अधिकाधिक तृष्णासंततिके अधीन हो मेरेलिये यह अनंत दुःखोंकी खान तयार की है और उसीके रक्षणादिककी तरफ मुझे प्रवृत्त कर आत्महितसे पराङ्मुख कर दिया है ऐसे पिता माता मुझे नहीं चाहिये । किंतु ऐसे और वैसे क्या, मैं अपने इन सभी बन्धुओंको हाथ जोडकर नमस्कार करता हूं और चाहता हूं कि मद्यके समान मोहित करनेवाले ममकारके द्वारा हिताहितके विचार--विवेकको नष्ट कर हृदयको संक्लिष्ट अथवा विघू. णित करदेनेवाले ये कोई भी बन्धुजन मुझे प्राप्त न हों। क्योंकि ये ऐसे अत्यंत दुष्ट हैं जो कि मोहित बनाकर आत्माको उसके वास्तविक हितसे वञ्चित रखते हैं। इन दुष्टोंको धिक्कार है । इनसे तो मेरे शत्रु ही भले, जिनके कि अपकारादिक करनेसे मेरा उपकार ही होता है । क्योंकि जब वे किसी प्रकारका अपकार करते या मुझको क्लेश देते हैं तो उनके उस व्यवहारसे मेरे पूर्व सश्चित दुष्कर्मोंकी उदीरणा होजाती है और फलतः आत्माका हित ही होता है। अधर्ममें प्रवृत्त करदेनेवाली दूसरोंके साथ की गई मित्रताकी निन्दा करते हैं:
अधर्मकर्मण्युपकारिणो ये प्रायो जनानां सुहृदो मतास्ते ।
स्वान्तर्बहिःसंततिकृष्णवर्त्यन्यस्त कृष्णे खलु धर्मपुत्रः ११८ अ. ध. ५५
अध्याय