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बनगार
ती रहती है। क्योंकि जिस कन्याको कुरूप या कुलक्षणादिकके कारण यदि कोई ग्रहण करना नहीं चाहता तो वह जिस प्रकार दुःखका ही कारण होती है उसी प्रकार व्यभिचारिणी और निःसंतान भी कन्या मातादिकके हृदयमें व्यथा ही उत्पन्न करनेवाली होती है। उस समय तो कन्या मातादिकको हृदयमें बहुत ही बुरी तरह
और पुनः पुनः जलाया करती है जब कि उसका पति मर जाय, अथवा संन्यास लेजाय, यद्वा कहीं दूर देशको निकलकर चला जाय, अथवा ऐसा पति मिले जो कि त्रिवर्ग-धर्म अर्थ काम पुरुषार्थों का साधन करने में असमर्थ हो । इस प्रकार कन्या मी माता पिताको पुत्रके ही समान अनेक प्रकारके दुःखोंके देनेमें मूल कारण है। फिर भी जो पुरुष उस कन्यामें मुग्ध रहते हैं-- उसके ममत्वग्रहसे अन्धे हो जाते और तत्त्वस्वरूपको न देख सकनेके कारण अपने अभीष्ट प्रयोजन दुःखोच्छेदन और सुखप्राप्तिको नष्ट कर देते हैं, उन्हे धिक्कार है।
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भावार्थ-पुत्रकी तरह कन्यारूप चेतन परिग्रह भी मनुष्योंको जन्मसे लेकर जबतक जीती है तब तक क्लेश ही देती है। फिर भी लोग उसमें मुग्ध होकर आत्मकल्याणसे पराङ्मुख रहते हैं । यह उनके अज्ञानका ही माहात्म्य है।
____ माता पिता आदि जितने बन्धु बान्धव हैं वे सब आत्माका अपकार ही करनेवाले हैं । अत एव उनकी वक्रोक्तिके द्वारा निन्दा करते हुए विपक्षियोंका अभिनन्दन करते हैं। क्योंकि उनके निमित्तसे पूर्वसंचित दुष्कमकी निर्जरा ही होती है। अत एव बे आत्माके उपकारी ही हैं:
बीजं दुःखै कबीजे वपुषि भवति यस्तर्षसंतानतन्त्र,स्तस्यैवाधानरक्षाद्युपधिषु यतते तन्वती या च मायाम् । भद्रं ताभ्यां पितृभ्यां भवतु ममतया मद्यवद् घूर्णयद्भयः, स्वान्तं स्खेभ्यस्तु बद्धोञ्जलिरयमरयः पापदारा वरं मे ॥११७॥