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अनगार
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गर्भस्वरूपको प्राप्त करता है तभीसे वह भार्या--पिताकी पत्नी और अपनी जनन के शुभ शुभगता सौन्दर्य सौष्ठव आदि गुणोंका अपहरण करता हुआ पिताके अथवा मातापिता दोनोंके ही त्रिवर्गका-धर्म अर्थ काम इन तीन पुरुषार्थोंका भी न्हास करदेता है । और प्रायः यौवन अवस्था प्राप्त करले नेपर पिताके ग्राम सुवर्णादिक धनको छीन कर या लेकर प्रतापको भी नष्ट करदेता है--उसे निस्तेज बना देता है। कहा है किः -
जाओ हरइ कलत्तं वद्दतो वड्डमा हरइ ।
अत्थं हरइ समत्थो पुत्तसमो वेरिओ णस्थि ।। . गर्भमें आते ही स्त्रीका, बढनेपर वृद्धिका और समर्थ होनेपर धनका अपहरण करनेवाले पुत्री बराबर वैरी कौन हो सकता है।
इसी प्रकार यदि वह मूर्ख-अज्ञानी हो, अथवा पापी-ब्रह्महत्या परदाराभिगमन सरीखे पातकोंमें प्रवृत्त हो, यद्वा व्याधि काराग्रह आदि विपत्तियोंमें फस गया हो, अथवा मूर्खता या असामर्थ्यके कारण उपकार करनेमें कृपणता करता हो-अनुपकारी हो तो वह शरीरमें कांटेकी तरह हृदयके भीतर चुभा करता है। इस प्रकार जो पुत्र गर्भसे लेकर बडे होनेतक दुःखोंका देनेवाला और नाना प्रकारसे अपकार करनेवाला है उसकी भी मृढ .-गृहस्थाश्रमके वास्तविक व्यवहारसे अनभिज्ञ पुरुप अपने साथ योजना-अपनी आत्माके साथ एकत्त्वकी कल्पना करते हैं। कहते हैं कि--यह-मेरे सामने उपस्थित तू , मैं ही हूं-हे पुत्र ! तुझमें और मेरी आत्मामें कुछ भेद नहीं है । पुत्र इस नामकी अपेक्षासे ही तू साक्षात् मुझसे भिन्न है, स्वरूपसे नहीं । जातकर्ममें कहा है कि:
अङ्गदङ्गात्प्रभवसि हृदयादपि जायसे ।
आत्मा वै पुत्रनामासि संजीव शरदः शतम् ।। हे पुत्र ! तू मेरे अङ्ग अङ्गसे उत्पन्न हुआ है । तेरे शरीरका प्रत्येक अङ्ग मेरे उसी उसी अङ्गसे बना
अध्याय
SEFERENTS