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बनगार
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प्रक्षोभ्यालोकमात्रादपि रुजति नरं यानुरज्यानुवृत्त्या, प्राणैः स्वार्थापकर्ष कृशयति बहुशस्तन्वती विप्रलम्भम् । . क्षेपावज्ञाशुगिच्छाविहतिविलपनाद्युग्रमन्तदुनोति,
प्राज्यागन्त्वामिषादामिषमपि कुरुते सापि भार्याऽह हार्या ॥ १११ ॥ स्त्रियां केवल अपने खरूपको दिखा करके ही मनुष्योंको क्षुब्ध कर-उनके हृदयको अच्छी तरह चंचल बनाकर संतप्त-पीडित किया करती हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि पूर्वानुरागके द्वारा स्त्रियां पुरुषोंको प्रचुर दुःखका कारण ही होता है। क्योंकि पूर्वानुरागका स्वरूप ही ऐसा है । कहा है किः--
स्त्रीपुंसयोनवालोकादेवोल्लसितरागयोः ।
ज्ञेयः पूर्वानुरागोयमपूर्णस्पृहयोदृशोः ।। जहांपर स्त्री और पुरुषका परस्परमें नवीन दर्शन होते ही दोनोंके हृदयमें रागका उद्रेक हो जाता है और दोनों ही की परस्परमें देखनेकी स्पृहा पूर्ण नहीं हो पाती-अपूर्ण ही रह जाती है वहांपर पूर्वानुराग समझा जाता है। यह विप्रलम्भ शृङ्गारका ही एक भेद है । यथा
पूर्वानुरागमानात्मप्रवासकरुणात्मकः ।
विप्रलम्भश्चतुर्धा स्यात् पूर्वपूर्वो ह्ययं गुरुः ॥ विप्रलम्भ शृङ्गार चार प्रकारका है-पूर्वानुराग, मान, प्रवास, और करुणा । इनमें पहला पहला भेद अधिक अधिक तीव्र है। करुणासे प्रवासमें, प्रवाससे मानमें, और मानसे पूर्वानुरागमें रागकी सीव्रता अधिक रहा करती है।
अतएव स्पष्ट है कि पहले तो पूर्वानुरागके द्वारा ही पत्नी पुरुषको क्लेश उपस्थित करती है । और पीछे
यध्याय
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