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बनमार
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हात्म्य स्वयं सिद्ध है । यद्यपि यहांपर संक्षेपसे एक सम्यक्त्व ही अथवा सम्यक्त्व और चारित्र दो ही आराध्य बताये हैं; किंतु प्रेक्षतेतरां इस शब्द के साथ जो तरां यह प्रत्यय लगा हुआ है-अपेक्षा रखनेमें अतिशयरूपसे ऐसा जो कहा है- उसमें ज्ञानकी ही अपेक्षा है। क्योंकि उद्द्योतादिक साध्योंके विषयमें सम्यक्त्वको ज्ञानमुखकी भी अपेक्षा रखनी पडती है।
व्रत दो प्रकारके हुआ करते हैं, एक महाव्रत दूसरे अणुव्रत । इन दोनो व्रतोंके स्वामियोंको बताते हैं:
स्फुरद्वोधो गलद्वृत्तमोहो विषयनि:स्पृहः ।
हिंसादेविरत: कात्याद्यतिः स्याच्छ्रावकोंशतः ॥ २१ ॥ स्फुरायमान ज्ञान, चारित्रमोहनीयका अभाव, और विषयोंमें निस्पृहता इन तीन गुणोंसे युक्त जो जीव हिंसादिक पापोंका सर्वथा त्याग करता है उसको यति और जो अंशत:--एकदेश त्याग करता है उसको श्रावक कहते हैं।
भावार्थ--महाव्रतोंका स्वामी यति और अणुव्रतोंका स्वामी श्रावक होता है। किंतु दोनों ही में तीन गुणों की आवश्यकता है । प्रथम तो यह कि उस जीवका ज्ञान जीवादिक तत्वोंमें जो हेय उपादेय
और उपेक्षणीय हैं उनमें उसी प्रकारसे प्रकाशमान--जाग्रत् होना चाहिये । दूसरा यह कि उसका चारित्रमोहनीय कर्म क्षयोपशमरूपसे हीन होता जाना चाहिये । महाव्रतके स्वामियोंके अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान मा
अध्याय
२९.
१-प्रत्याख्यानावरगके क्षयोपशमतक ही कहनेका प्रयोजन यह है कि आजकल यहांके जीवोंके सामायिक छेदोपस्थापना और संयमासंयम ही संभव है।