________________
अनगार
STREPROMOPANJTARATHI 205055006303
३१६
स्वामीके द्वारा अनुज्ञात और योग्य-संयम अथवा ज्ञानकी साधक वस्तुका ही ग्रहण करते हुए, तथा उसके ग्रहण करनेमें भी आसक्तिका त्याग करते हुए, एवंच दी हुई वस्तुको भी प्रयोजन मात्र ग्रहण करते हुए साधुओंको पर वस्तुमें सर्वथा निरीह होना चाहिये । इसी प्रकार भोज्य वस्तुके ग्रहणमें तथा शरीरमें गृद्धिका परित्याग कर और परिग्रहसे रहित हो तथा अपने शरीरका आलोचन करते हुए अथवा आत्मा और शरीरमें भेदावलोकन करते हुए मुमुक्षुओंको पर वस्तुओंमें आकांक्षा न करनी चाहिये ।
भावार्थ- यहांपर दो प्रकारसे पांच पांच भावनाएं बताई हैं । एक आचार शास्त्रके अनुसार, दूसरी प्रतिक्रमण शास्त्र के अनुसार । आचार शास्त्रमें कहा है कि -
उपादानं मतस्यैव मते चासक्तबुद्धिता । ग्राह्यस्यार्थकृतो लानमितरस्य तु वर्जनम् ॥ अप्रवेशोऽमतेऽगारे गृहिभिर्गोचरादिषु ।
तृतीये भावना योग्ययाच्या सूत्रानुसारतः ॥ तृतीय-अचौर्यव्रतमें ये पांच भावनाएं भानी चाहिये । १ अनुमत-स्वामीके द्वारा अनुज्ञात और योग्य ही वस्तुका ग्रहण करना, २ और अनुमत वस्तुमें भी आसक्त बुद्धि न रखना, ३ तथा जितनेसे अपना प्रयोजन सिद्ध हो उतना ही उसको ग्रहण करना बाकीको छोड देना, ४ गोचरादिक करते समय जिस गृहमें प्रवेश करनेकी उसके स्वामीकी अनुमति नहीं है उसमें प्रवेश न करना, ५ और सूत्रके अनुसार योग्य विषय की ही याचना करना।
.. इन्ही पांच भावनाओंका ग्रंथकारने पूर्वार्धमें निदर्शन किया है । स्वामीके द्वारा अनुज्ञात इस विशेषणसे तीन भावनाओंका संग्रह होता है। १ आचारशास्त्रमें कही हुई विधिके अनुसार योग्य वस्तुका याचन २ और योग्य ग्रहण, ३ तथा जिस गृहमें उसके स्वामीकी प्रवेशाज्ञा नहीं है उसमें प्रवेश न करना । क्योंकि
अध्याय