________________
अनगार
रहो क्योंकि वे तो मोक्षमार्गके अत्यंत प्रतिबंधक हैं, अत एव उनके विषयमें तो यहां कुछ कहनेकी आवश्यकता ही नहीं है। किंतु कहना यह है कि ऐसा कौन मनुष्य है जो कि इन प्रमदाओंके श्रोणि-कटि और स्तनके भारसे-कटि और कुचोंकी गुरुताको न सहनेके कारण गमनके मन्थर-मन्द होजानेसे उद्दाम-उदार गम्भीर मधुर धीमी ध्वनि-रण झण शब्द करते हुए मेखलाके मंजीरोंसे-रशना, नूपुरोंके शब्दोंको सुनते झटिति विक्षिप्तचित्त होकर मोहके अन्धकूपमें नहीं गिरपडता ।
भावार्थ-- कामिनियोंके भृकुटिसंचालनका रसानुभव आदि तो आत्महितका साक्षात् ही विरोधी है। अत एव उसकी त्याज्यताका तो उपदेश ही क्या दें; क्योंकि मुमुक्षुओंको वह तो सबसे पहले ही त्याज्य है। किंतु उन्हें चाहिये कि कामिनियोंका संपर्क करना-संगतिमें रहना भी वे इस तरहसे छोडदें कि जहांसे उनकी मेखलादिका शब्द कानोंमें पडकर कहीं उनके मनको विक्षिप्त-मूर्छित न करदे । क्योंकि जब नूपुरोके शब्दको सुनकर ही मनुष्योंका मन व्याकुल होजाता है तब उसके उस तरह के वचनोंकी तो बात ही क्या है।
स्त्रियोंके साथ संभाषण करनेके दोष बताते हैं:मम्यग्योगाग्निना रागरसो भस्माकृतोप्यहो ।
उज्जीवति पुनः साधोः स्त्रीवाक्सिद्धौषधीबलात् ॥ ८७ ॥ समीचीन योग-समाधिरूपी अग्नि-प्रयोगबन्हिके द्वारा भस्मरूप-दग्ध किया गया भी साधुओंका रागरूपी रस - मोहरूपी पारद, अहो, आश्चर्यकी बात है कि स्त्रियोंके वचनरूपी सिद्धौषधीके बलसे फिर उज्जीवित होजाता है-प्राण धारण करलेता है।
भावार्थ-जिस कषायको साधुगण बडी मुश्किलसे ध्यान धारणा और समाधी आदि अनेक उपायोंके द्वारा शांत या क्षीण करपाते हैं वही कषाय स्त्रियोंके साथ संभाषण करनेसे क्षणमात्रमें फिर उद्दीप्त होजाता है।
अध्याय