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बनगार
साधुओंको अभीष्ट पद-मोक्ष प्राप्त करनेकेलिये अथवा उसके साधन चारित्रका आगधन करनेकेलिये अन्तरङ्ग और बाह्य सभी परिग्रहका त्याग करना चाहिये । अन्तरंग परिग्रहके चौदह भेद हैं । यथाः
मिल्छसनेदरागा हस्सादीया य तय छरोसा ।
चत्तारि सह कसाया चउहसाब्भंतरा गंथा ।। मिथ्यात्व, और तीन वेद-स्त्री पुरुष नपुंसक, हास्यादिक छह नोकषाय-हास्य रति अरति शोक भय जुगुप्सा, तथा चार कषाय-क्रोध मान माया लोम, ये चौदह अन्तरङ्ग परिग्रह हैं। बाह्य परिग्रहके दश भेद हैं। यथाः
क्षेत्र धान्यं धनं वास्तु कुप्यं शयनमासनम् ।
द्विपदाः पक्षषो भाण्डं बाह्या दश परिग्रहाः ।। क्षेत्र-खेत, धान्य-गेहू आदि अन्न, धन-सोना चांदी आदि, वास्तु-मकान, कुप्य-वस्त्र, शयन-खाट आदि, आसन सिंहासन प्रभृति बैठने की चीजें, द्विपद-दास दासी आदि, पशु-घोडा हाथी ऊंट आदि. भाण्ड वर्तन-ये दश प्रकारके बाह्य परिग्रह हैं। ये अन्तरङ्ग परिप्रहके उत्पन्न करनेमें, जो कि कर्मबन्धका साक्षात्कारण है, निमित्त हैं । अत एव इनका भी त्याम ही करना चाहिये । जैसा कि कहा भी ह कि:
मूछीलक्षणकरणात् सुघटा व्याप्तिः परिग्रहस्वस्य । सग्रन्थो मूर्खावान् विनापि किल शेषसंगेभ्यः। यद्येवं भवति तदा परिग्रहो न खलु कोपि बहिरङ्गः।
अध्याय
१-सर्वार्थसिद्धि में धनशब्दसे गा आदिक लिये हैं। यदि यही अर्थ लिया जाय तो यहांपर पशु शब्दका ग्रहण व्यर्थ होजाता है । अत एव भेदविवक्षासे धनशब्दका अर्थ यहांपर सो ग चांदी ही किया है।