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धर्म
अनगार
मजबूत होजाता है उसी प्रकार विषादरूपी जलका सिञ्चन होजानेसे-छींटा लगजानेसे अलौकिक बंधन भी दृढ होजाता है । क्योंकि देखते हैं कि अज्ञानी जन जब स्त्री आदिके निमित्तसे उपस्थित होनेवाले दुःखोंसे पीडित होते हैं तब वे उनको कदाचित् छोडना चाहते हैं किंतु उनके विरहसे उन्हे ऐसा विषाद होता है कि जिसके निमित्तसे वे और भी अधिक तीव्र असाता वेदनीय कर्मका बंध करलेते हैं जो कि अधिक दुःखका ही कारण होता है । अत एव ममकार या अहंकाररूप परिग्रहका बंधन ही जीवोंके लिये दुःखका मूल है। ऐसा समझकर अन्तरङ्ग परिग्रहोंकी तरह बाघ परिग्रहोंका भी त्याग ही करना चाहिये ।
बाद्य परिग्रह चेतन और अचेतन इस तरह दो प्रकारका जो बताया है उसमें चतन परिग्रहको पृथक विभक्त करके सोलह पद्यों में उसके दोष बताना चाहते हैं। किंतु उसमें भी पहले पांच पद्योंमें स्त्री परिग्रहके दोषोंका वर्णन करते हैं। क्योंकि अत्यंत गाढ रागका निमित्त स्त्री ही होती है
वपुस्तादात्म्येक्षामुखरतिसुखोत्क: स्त्रियमरं, पगमप्यारोप्य श्रुतिवचनयुक्तयात्मनि जडः। तदुच्छ्रासोच्छ्रासी तदसुखसुखासौख्यसुखभाक्,
कृतम्रो मात्रादीनथ परिभवत्याः परधिया ॥ १.९ ॥ बहिरात्मबुद्धि मूढ प्राणी शरीरके साथ अपनी आत्माका तादात्म्य समझता है । अतएव वह शरीर और आत्मा दोनोंको एक रूपमें ही देखता है । वह समझता है कि मेरा आत्मा ही शरीर है और शरीर ही आत्मा है, दानो भिन्न वस्तु नहीं हैं। इस विपरीताभिनिवेशरूप शरीर और आत्मामें होनेवाले एकत्व प्रत्ययके द्वारा ही यह अज्ञानी जीव रति मैथुन कमसे उत्पन्न होनेवाले सुख में सदा उत्सुक रहा करता है । यही कारण है कि वह आत्माकी तो बात ही क्या, शरीरसे भी सर्वथा भिन्न-अत्यंत अर्थान्तररूप स्त्रोका श्रुतिवचन-वेदवाक्योंकी
अध्याय
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