________________
हो चाहे न हो। जुगुप्साका उदय होनेपर दोषसहितकी तो बात ही क्या गुणविशिष्ट पुरुषसे भी जीव ग्लानि करने लगता है। इसी प्रकार मान क्रोध और माषाका उदय होनेपर मनुष्य अस्थान-गुरु आदिके विषयमें भी स्तब्धता क्रूरता और प्रतारणाका प्रयोग करने लगता है । लोभके उदयकी तो बात ही कहांतक कहें। इसके निमित्तसे तो जीव समस्त जगतको अपने पेटमें ही रखलेना चाहता है ।
अनगार
४१६
इस प्रकार ये अन्तरङ्ग भावरूप चौदह परिग्रह हैं जिनका कि साधुओंको त्याग करना चाहिये । चेतन और अचेतन इस तरह दो प्रकारकी दुस्त्याज्यताका सामान्यरूपसे निरूपण करते हैं: -
प्राग्देहस्वग्रहात्मीकृतनियतिपरीपाकसंपादितैत,देहद्वारेण दारप्रभृतिभिरिमकैश्चामुकैश्चालयायैः । लोकः केनापि बाबैरपि दृढमबहिस्तेन बन्धेन बद्धो
दुःखार्तश्छेत्तुमिच्छन् निबिडयतितरां यं विषादाम्बुवषैः ॥ १०८ ॥ शरीरमें आत्मत्व या आत्मीयताका अभिनिवेश या निश्चय करनेसे जो पूर्व जन्ममें नामकर्मका संचय अथवा बंध हुआ था उसके उदयसे वर्तमान भवमें जो शरीर प्राप्त हुआ है उसके द्वारा, आश्चर्य है कि बाह्य-आत्मासे असम्बद्ध भी इन कुत्सित प्रतीयमान स्त्रीप्रभृति और इसी प्रकार-दुःखकर ही अनुभवमें आनेवाले उन गृहादिक परिग्रहोंने इस संसारी बहिरात्मा प्राणीको किसी अलौकिक ऐसे बन्धनसे अन्तरङ्गमें दृढतासे बांध लिया है जिसका कि इन्ही परिग्रहोंके द्वारा प्राप्त होनेवाले दुःखोंसे पीडित होनेपर छेदन करने की इच्छा रखते हुए भी वह प्राणी उसका छेदन नहीं करता बल्कि विषादरूपी जलका सिञ्चन कर उस बंधनको और भी अधिक दृढ बनालेता है।
अध्याय
४१६