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अनगार
धर्म
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HOSRESTMISSITES
जितने भी सिद्ध-संसारसे रहित हैं वे सब भेदविज्ञानके निमित्तसे ही सिद्ध हुए हैं। और जितने संसारी प्राणी हैं वे सब नियमसे इस भेदज्ञानके न रहनेके कारण ही कोंसे बंधते हैं।
धनधान्यादिक परिग्रहरूपी ग्रह जिसपर सवार है ऐसे मनुष्यके जो मिथ्यात्व हास्य वेद रति अरति शोक भय जुगुप्सा मान कोप माया लोमके निमित्तसे जिस किसी भी विषयों परतन्त्रता उत्पन्न होकर प्रवृत्त हुआ करती है उसको क्रमसे छोडनेका उपदेश देते हैं:
श्रद्धत्तेनर्थमर्थ हसनमवसरप्येत्यागम्यामपीच्छ,त्यास्तेऽरम्यपि रम्येप्यहह न रमते दौष्टकेप्यति शोकम् । यस्मात्तस्माबिभेति क्षिपति गुणवतोप्युद्धति क्रोधदम्भा,
नऽस्थानेपि प्रयुक्त ग्रसितुमपि जगदृष्टि सङ्गग्रहातः ॥ १०७ ॥ परिग्रहका अभिनिवेश-ममकार अहंकाररूप परिणाम भूतावेशके समान है। इससे पीडित या आक्रान्त हुआ मनुष्य अतत्त्वभूत पदार्थका भी श्रद्धान करने लगता है। प्रमाणसिद्ध हेय और उपादेयरूप तथाभूत वस्तु को अर्थ कहते हैं । जो छोडने योग्य निश्चित है उसको हेय और जो ग्रहण करने योग्य निश्चित है उसको उपादेय कहते हैं। परिग्रहरूपी ग्रहसे संक्लिष्ट हुआ पुरुष अर्थको अनर्थ और अनर्थको अर्थ समझकर श्रद्धान करने लगता है । तत्त्वभूत पदार्थमें भी अतत्त्वभूतकी तरह रुचि नहीं करता और अतत्त्वभूतमें भी तत्वभूतकी तरह रुचि करने लगता है। जो धनधान्यादिक आत्माका हित सिद्ध करनेमें बिल्कुल भी उपयोगी नहीं हैं उनमें परिग्रहपीडित मनुष्य इतनी रुचि करने लगता है और ऐसा रत होजाता है कि जिससे वह अपने स्वामीका धनलवसे खरीदा हुआ गुलाम जैसा बनजाता है। यदि स्वामी नाचता है तो आप मी नाचता है और यदि स्वामी भागता है तो आप भी उसके साथ परिकर लेकर और पसीनामें सराबोर होकर खूब भागने लगता है । यदि स्वामी किसी निर्दोष गुणी पुरुषकी निन्दा करता है तो आप भी निंदा करता है । स्वामी हसता है तो आप भी ह
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अध्याय