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अनगार
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हुए शांति की अभिलाषासे उसकी तरफ उत्सुकतासे दौडते हैं, उसी प्रकार विषयवासनासे संसारी प्राणी इन्द्रियविषयोंको सुखकर समझकर उनको प्राप्त करनेके लिये चेष्टा किया करते हैं। अत एव ये इन्द्रियों के विषय मृगतृष्णाके समान हैं, वास्तवमें ये सुख और शांतिके कारण नहीं हैं । अथवा कर्मके क्षयोपशम के अनुसार इन इन्द्रियोंके प्रतिनियत विषयोंमें यदि कुछ प्रकाश भी होता है तो वह बहुत ही थोडा है-आभासमात्र है । इस ताहकी इन्द्रियविषयरूपी मरीचिकाको छोडकर- इन्द्रियविषयोंसे संयत होकर, और समस्त सावध क्रियाओंको-आरम्भादिकोंको छोडकर तथा जो छोडे जा सकते हैं ऐसे समस्त गृह गृहिणी प्रमृति बाह्य पदार्थों को सर्वथा छोडकर बालके अग्रभागकी बराबर भी त्याज्य परिग्रहसे अपना सम्बन्ध न रखकर, और जो छोडे नहीं जा सकते-जिनका त्याग करना अशक्य है एसे शरीरादिक परिग्रहोंके विषयमें निर्मम होकर- " ये मेरे हैं" इस संकल्पको छोडकर साधुओंको निज आत्मस्वरूपसे उत्पन्न सुखका सेवन करना चाहिये ।
भावार्थ--यहांपर निर्मम शब्द उपलक्षण अर्थमें आया है। जिससे साधुओंको "ये मेरे हैं" इस संकल्पकी तरह "ये मैं हूं" और " मैं ये हैं" इस संकल्प भी रहित होना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:
जीवाजीवणिबद्धा परिग्गहा जीवसंभवा चेव । तेसिं सक्कच्चाओ इयरह्मि य णिम्ममोऽसंगो ॥
अध्याय
परिग्रह दो प्रकारका है, चेतन और अचेतन अथवा अंतरंग और बाह्य । इनमेंसे जिनका त्याग किया जा सकता है उनका सर्वथा त्याग करना चाहिये । और बाकीके जो परिग्रह हैं उनमें निर्मम होना चाहिये । इसी का नाम नैन्थ्य है । क्योंकि जो जीवसे असम्बद्ध उपधि है उसीका सवथा त्याग हो सकता है। सम्बद्धका नहीं। अत एव जो जीवसे सम्बद्ध हैं ऐसे शरीरादिक परिग्रहमें ये मेरे हैं अथवा ये मैं ही हूं इस तरहकी संकल्परूप मूर्छा. का ही परित्याग करना चाहिये।
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