________________
मिथ्याज्ञान जिसका अनुसरण करता है ऐसे मोहक के उदयसे जीवके दो प्रकारके भाव हुआ करते हैं-एक ममकार, दूसरा अहंकार । इन दोनोंका लक्षण इस प्रकार है:
शश्वदनात्मीयेषु स्वतनुप्रमुखेषु कर्मजनितेषु । आत्मीयाभिनिवेशो ममकारो मम यथा देहः ।। ये कर्मकृता भावाः परमार्थनयेन चात्मनो भिन्नाः। तत्रात्माभिनिवेशोहंकारोहं यथा नृपतिः ।।
कर्मके उदयसे उत्पन्न हुए अपने शरीर प्रभृति उन पदार्थों में जो कि आत्मासे भिन्न होनेपर भी सदा उससे सम्बद्ध रहते हैं, आत्मीयताके अभिनिवेशको ममकार कहते हैं। जैसे कि ये मेरा शरीर है। तथा कर्मोदयसे प्राप्त हुए उन पदार्थों में जो कि परमार्थसे आत्मासे भिन्न हैं-असम्बद्ध हैं उनमें आत्मीयताके अभिनिवेशको अहंकार कहते हैं । जैसे कि मैं राजा हूं।
आत्मासे भिन्न परद्रव्यका ग्रहण करना ही बंधका कारण है और खद्रव्यमें संवृत्त रहना ही मोक्षका कारण है। जैसा कि कहा भी है कि
परद्रव्यग्रहं कुर्वन् वध्येतैवापराधवान् ।
बध्येतानपराधो न स्वद्रव्ये संवृतो यतिः ।। परद्रव्यका ग्रहण करनेवाला साधु अपराधी है अत एव वह बंधता है। किंतु जो यति स्वद्रव्यमें ही संवृत रहता है वह अपराधी नहीं है अत एव वह बंधता भी नहीं है। जिस प्रकार परद्रव्यका अपहरण करनेवाला चोर अपराधी होनेके कारण पकडा जाता है-बंधता है। किंतु जो स्वद्रव्यमें ही संतुष्ट रहनेवाला मजन है वह निरपराधी होनेके कारण बँध नहीं सकता। और भी कहा है किः
भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन । तस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ।।
बध्याय
KEERTAN