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अनगार
सता है। स्वामी रोता है तो आप भी रोने लगता है और डकराता है तो आप भी डकराने लगता है। मतलब यह कि धनको आत्महित समझकर उसके प्राप्त करनेकी तीव्र लालसासे परिग्रहसंज्ञामें रत हुआ प्राणी धनपतिकी स्वच्छन्दताका भी अनुवतेन करनेमें रत होजाया करता है।
यह मिथ्यात्वका-अतत्त्वभूत पदार्थमें तत्त्वभूतकी तरह रुचि करनेका एकमात्र निदर्शन है। इसी प्रकार और भी समझने चाहिये, तथा हास्यादिक शेष अन्तरङ्ग परिग्रहों के भी उदाहरणोंको स्वयं समझलेना चाहिये। अत एव हात्यादिक परिग्रहोंके कार्यमात्रको ही यहांपर दिखाते हैं:--
हास्य कषायसे पीडित हुआ मनुष्य अवसरकी तो बात ही क्या, विना अवसरके भी हसने लगता है, पुरुषवेदसे पीडित होकर सर्वथा अगम्य-गुरुपत्नी राजपत्नी मित्रपत्नी आदिकसे भी गमन करने लगता है। यदि तू मेरे साथ संभोग करे तो मैं तुझको अमुक वस्तु दं, इस प्रकार लोभ दिये जानेपर उनका अभीष्ट सिद्ध करनेमें भी प्रवृत्त होजाता है। इसी प्रकार स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके विषयमें भी समझलेना चाहिये । रतिकषायसे पीडित मनुष्य मिल्लपल्ली आदि अमनोज्ञ स्थान या पदार्थ में भी प्रेम करने लगता है । और अरति कषायका उदय होनेपर राजधानी आदि रमणीय स्थान भी मनुष्यको रुचिकर नहीं होते । शोक नोकषायके उदयसे आक्रान्त होनेपर मनुष्य अहा, खेद है कि ऐसे विषयों या पदार्थों में भी शोक करने लगता है जिनमें कि केवल देव ही प्रमाण है-जो केवल कर्मके उदयसे ही होजाया करते हैं। भयका उदय होनेपर चाहे जिस पदार्थ से मनुष्य डरने लगता है, चाहे वह भयका कारण १-गला फाडकर चिल्लाना।
२-हसति हसति स्वामिन्युचै रुदत्यतिरोदिति,
गुणसमुदितं दोषापेतं प्रणिन्दति निन्दति । कृतपरिकर स्वेदोगारि प्रधावति, धावति, धनलवपरिक्रीतं यन्त्रं प्रनृत्यति नृत्यति ।।
अध्याय