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अनगार
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अध्याय
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新勝電盤膠雞絲粉蘿鮮 藍 go#augi• 綠鮮蒸雞雞
भवति नितरां मतोसौ धत्ते मूर्द्धानिमित्तत्वम् ॥ एवमतिव्याप्तिः स्यात् परिग्रहस्येति चेद्भवेन्नैवम् । यस्मादकषायाणां कर्मग्रहणे न मूांस्ति ॥
परिग्रहका लक्षण मूर्च्छा किया गया है । अत एव दोनों में व्याप्ति अच्छी तरह से घटित होती है । और
इसीलिये बाह्य पदार्थका ग्रहण न करनेपर भी जो मूर्च्छायुक्त है उसको सग्रंथ ही माना है । कहा जा सकता है कि यदि बात है तो बाह्य परिग्रह कोई चीज ही नहीं है। क्योंकि अन्तरङ्गमें मूर्छा के रहनेपर सपरिग्रह और न रहने पर अरिग्रह माना जाता है। किंतु यह बात ठीक नहीं है; क्योकि बाह्य परिग्रह अन्तरङ्ग मूर्छाका निमित्त है | बाह्य परिग्रहके रहनेपर अन्तरङ्गमें भी मूछ हो ही जाती है क्योंकि अन्तरङ्ग मूर्च्छाके विना बाह्य परिग्रहका ग्रहण नहीं हो सकता । अत एव बाह्य पदार्थोंके ग्रहण करनेको भी परिग्रह ही कहते हैं । इस कथनमें भी अतिव्याप्ति दोष दिया जा सकता है । क्योंकि इस लक्षणके अनुसार कर्मग्रहणको भी मूर्छा कह सकते हैं। क्योंकि वह भी आत्मस्वरूपसे भिन्न बाह्य पदार्थके ग्रहणरूप ही है । किन्तु यह दोष ठीक नहीं है । क्योंकि अकषाय व्यक्तियों के कर्मके ग्रहण करनेमें मूर्छा नहीं होती वह मूर्च्छापूर्वक नहीं होता ।
परिग्रहका त्याग करनेकी विधि बताते हैं: -
परिमुच्य करणगोचरमरीचिकामुज्झिताखिलारम्भः ।
त्याज्यं ग्रन्थमशेषं त्यक्त्वापरनिर्ममः स्वशर्मं भजेत् ॥ १०६ ॥
जिस प्रकार प्यास से बाधित हुए मृगगण जङ्गलकी चीली भूमिमें जलका श्रम कर बाधित २– लक्षणके तीन दोष होते हैं - अव्याप्ति अतिव्याप्ति असंभव । लक्ष्य के एकदेशमें लक्षणके रहनेको अन्याप्ति, और अलक्ष्य में भी रहनेको अतिव्याप्ति तथा लक्ष्यमात्र में न रहनेको असंभव दोष कहते हैं ।
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