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बनगार
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निर्मोकेण फणीव नाहति गुणं दोषैरपि त्वेधते,
तद्ग्रन्थानबहिश्चतुर्दश बहिश्चोज्झेदश श्रेयसे ॥ १०५ ॥ जिस प्रकार बाह्य तुष--मोटे छिलकेसे रुद्ध-वेष्टित तण्डुल-धान अन्तरङ्गसे भी शुद्ध नहीं किया जा सकता -पतली भूसी उतार कर शुद्ध चावल नहीं बनाया जा सकताउसी प्रकार बाह्य ग्रन्थ-अपने में ममकारके उत्पन्न करानेवाले चेतन और अचेतनरूप परिग्रहसे युक्त-आच्छादित अथवा आसक्तिको प्राप्त जीव भी अन्तरङ्गमें शुद्ध नहीं हो सकता-कर्मकलङ्कसे रहित निर्मल नहीं बन सकता । कहा भी है किः -
शक्यो यथापनेतुं न कोण्डकस्तण्डुलस्य सतुषस्य । न तथा शक्य जन्तोः कर्ममलं सङ्गसक्तस्य ।।
अध्याय
जिस.प्रकार तुषसहित तण्डुलके भीतरकी भूसी दूर नहीं की जा सकती उसी प्रकार सग्रन्थ मनुष्यका कर्ममल भी दूर नहीं हो सकता।
इस कथनसे किसी किसीका यह शंका हो सकती है कि अन्तरङ्ग परिग्रह कोई चीज ही नहीं है, किन्तु बाह्य परिग्रह ही सब कुछ है । और आत्मिक विशुद्ध अवस्था प्राप्त करनेकेलिये उसीका त्याग करना चाहिये ? अत एव ग्रंथकार इस शंकाका परिहार करनेकेलिये कहते हैं कि-जिस प्रकार निर्मोक-केंचुलीसे रहित भी विषसहित सर्प गुणी नहीं हो जाता-केंचुली उतरजानेसे ही वह निर्विष या शुद्ध जीव होगया ऐसा नहीं कहा जा सकता बल्कि विष रहनेसे दोषी ही रहता है या और भी अधिक दोषी हो जाता है। उसी प्रकार बाह्य परिग्रहसे रहित भी जीव यदि अन्तरङ्गमें मू युक्त है तो वह अहिंसादिक गुणोंसे युक्त नहीं हो सकता बल्कि उसमें दोष ही अधिक वृद्धिको प्राप्त हो सकते हैं। ऐसा जीव भी आत्माकी विशुद्ध अवस्थाको प्राप्त नहीं कर सकता । अत एव
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