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बनगार
४.८
जो महापुरुष इन मूछीपरिणामोंके विरुद्ध निरंतर इस तरहकी भावनाका अभ्यास किया करते हैं कि "ये बाह्य और अन्तरङ्ग कोई भी पदार्थ मेरे नहीं है, और न मैं इनका हूं, मैं किसी अन्य पदार्थरूप भी नहीं हूं, और न कोई अन्य पदार्थ ही मुझ स्वरूप हैं।" वे ही महात्मा दुष्ट ग्रहके समान इस परिग्रहका निग्रह कर सकते हैं। और तीन लोककी स्वामिताको प्राप्त कर सकते हैं। क्योंकि यह आकिञ्चन्य भाव कोई न ह. मारा, हम न किसीके, यह परिणाम मुंसिद्ध मंत्रके समान है जो कि गुरूपदेशके अनन्तर ही अपना कार्य कर दिया करता है। यहांपर यह प्रश्र हो सकता है कि जो अकिंचन है वह तीन लोकका स्वामी किस तरह हो सकता है ? क्यों कि ये दोनो ही बातें परस्पर विरुद्ध हैं। अतएव उक्त अर्थ न करनेके लिये ग्रंथकार कहते हैं कि साधुओंका चरित्र विचित्र ही हुआ करता है।
परिग्रह दो प्रकारका है- एक अन्तरंग दूसरा बाह्य । इन दोनों ही प्रकारके परिग्रहोंके दोषोंको बताते हुए मुमुक्षुओंको उनके त्याग करनेका उपदेश देते हैं
शोध्योऽन्तन तुषेण तण्डुल इव ग्रन्थेन रुहो बहि,जीवस्तेन बहिर्मुवापि रहितो मूर्जामुपार्छन् विषम् ।
मध्याय
१-मंत्र तीन प्रकारके होते हैं सिद्ध, साध्य और सुसिद्ध । इनका स्वरूप इस प्रकार है कि
सिद्धः सिध्यति कालेन साध्यो होमजपाविना ।
सुसिद्धस्तत्क्षणादेव अरिं मूलानिकृन्तति ॥ जिसके सिद्ध होनेमें कालकी अपेक्षा रहती है उसको सिद्ध, और जो होम जप आदि करनेसे सिद्ध हो जाता है उसको साध्य, तथा जो तरक्षण ही-गुरुपदेशके बाद ही अपना कार्य कर सके उसको सुसिद्ध कहते हैं।
२-" भवति मुनीनामलौकिकी वृत्तिः" ।