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बनमार
घरमें उत्पन्न होजाते हैं । किंतु जिस प्रकार विक्रेय द्रव्य जहाँ लेजानेसे विशिष्ट अर्थ लाभके कारण हो सकते हैं वहांपर शौलिककके भट उनको लेजाने नहीं देते, उसी प्रकार सम्यग्दर्शनादिक जिस मोक्षमार्गमें चलनेपर विशिष्ट मोक्षरूप अर्थक लाभके कारण हो सकते हैं उसमें ये कामिनी-भट जाने नहीं देते-चारित्रका आराधन करने नहीं देते । अत एव साधुओंको उचित है कि वे इन भटोंसे सदा सावधान रहकर अपने चारित्र-ब्रह्मचर्य महाव्रतका निरंतर आराधन करनेका प्रयत्न करें।
इस प्रकार ब्रह्मचर्य महाव्रतका व्याख्यान पूर्ण हुआ । अब क्रमानुसार आकिञ्चन्य महाव्रतका अडतालीस पद्योंमें वर्णन करना चाहते हैं । किंतु उसमें सबसे पहले मुमुक्षुओंनो उसका पालन करनेकेलिये अच्छी तरह उत्साहित करनेके अभिप्रायसे उसका लोकोत्तर माहात्म्य प्रकट करते हैं:
मूर्जा मोहवशान्ममेदमहमस्येत्येवमावेशनं, तां दुष्टग्रहवन्न मे किमपि नो कस्याप्यहं खल्विति । आकिंचन्यसुसिद्धमन्त्रसतताभ्यासेन धुन्वति ये ते शश्वत्प्रतपन्ति विश्वपतयश्चित्रं हि वृत्तं सताम् ॥ १०४॥
बध्याय
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मोहनीय कर्मके उदयसे " यह मेरा है" और " मैं इसका हूं" ऐसा जो परिणाम विशेष होता है । उसको मूर्छा कहते हैं । जो महापुरुष दुष्ट ग्रहके समान इस मूर्छाका, “न मेरा कोई है" और " न मैं किसीका हूं, तथा "आत्मखरूपको छोडकर मैं और कुछ नहीं हूं। और संसारमें भी निजात्मरूपके सिवाय और कुछ भी उपादेय नहीं है" इस प्रकारके आकिञ्चन्य व्रतरूपी सुसिद्ध मंत्रका निरंतर अभ्यास करके, निग्रह करदेते हैं वे ही साधु तीन लोकके स्वामी बनकर अव्याहत तेजके धारक होजाते हैं । क्योंकि साधुओंका चरित्र विचित्र ही हुआ क-. रता है।