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बनगार
षणादि करके इस तरहसे कुशील-दुर्वृत्त या दुराचारी होजाता है जैसे कि चारुदत्त सेठ होगया था । तथा दुराचारी भी मनुष्य सत्पुरुषों-सजनोंकी संगति पाकर यद्वा उनके साथ संभाषणमात्र ही करके इस तरहसे सुशील बनजाता है जैसे कि मारिदत्त राजा बनगया था।
इस प्रकार वृद्ध पुरुषोंकी संगति करनेका उपदेश पूर्ण हुआ और उसके साथ साथ पहले जो ब्रह्मचर्यव्रतकी वृद्धिके कारणभूत स्त्रीवैराग्यकी पांच भावनाएं बताई थी उनका स्वरूप निरूपण भी समाप्त हुआ। किंतु इनके सिवाय पांच भावनाएं और भी बताई हैं। यथा-१ स्त्रीरागकथा श्रवण त्याग, २ तन्मनोहराङ्ग निरीक्षण त्याग, ३ पूर्वरतानुस्मरण त्याग, ४ वृष्येष्टरस त्याग, ५ खशरीरसंस्कार त्याग । साधुओंको अपने ब्रह्मचर्य महाब्रतकी स्थिरताके लिये इन भावनाओंका भी पालन करना चाहिये ऐमा उपदेश देते हैं:
रामागगकथाश्रुतौ श्रुतिपरिभ्रष्टोसि चेद्भष्टदृक्, तद्रम्याङ्गनिरीक्षणे भवसि चत्तत्पूर्वभुक्तावसि । नि:संज्ञो यदि वृष्यवाञ्छितरसास्वादेऽरसज्ञोसि चेत्
संस्कारे स्वतनोः कुजोसि यदि तत्सिदोसि तुर्यव्रते ३ १.१॥ हे माधो ! स्त्रियों के द्वाग अथवा स्त्रियोंके विषयमें रागपूर्वक किये गये ऐसे किसी भी कथोपकथनके जो कि उन रमणियोंके विषय में गगतिको उत्पन्न कर सकता है। सुननेके लिये यदि तु ऐसा बनगया है मानो तेरे कान ही नहीं हैं-- अत्यंत बधिर और उनके मुख कुच त्रिवली जवा नितम्ब प्रभृति रमणीय--मनोहर अङ्गाके
बध्याय
1---इन दोनो कथाओंको क्रमसे चारुदत्त चरित्र और यशोधर चरित्रमें देखना चाहिये । ३-" नित्य कामाङ्गनादोषाशौचानि भावयन् " इस श्लोकों ।