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युवावस्थामें तो नपुंसकोंको भी अवश्य ही कुछ न कुछ विकार करलेना चाहिये । क्योंकि यौवन निर्विकार रहनेकलिये संडा ही है। .
और भी कहा है कि
बनगार
यस्मिन्त्रजः प्रसरति स्खलितादिवोच्च,रान्ध्यादिव प्रबलता तमसश्चकास्ति । सत्त्वं तिरोभवति मीकमिवाबजामे,
स्तद्यौवनं विनयसज्जनसङ्गमेम ॥ यौवनको पाकर मनुष्य स्खालत होने लगता है, जिससे मालुम पडता है कि उसमें रजोगुण अच्छी तरहसे अपना प्रसार कर रहा है। इसी प्रकार युक्तायुक्तके विवेकसे रहित होकर उसमें अन्धता भी आजाती है जिसमे मालुम पडता है कि उसमें तमोगुण भी अपनी प्रबलताको प्रकाशित कर रहा है। किंतु उसका सत्वगुण मानों उसके शरीरकी अग्रिसे डरकर ही छिपा जाता है । इस प्रकारका यौवन विनयगुण और सत्पुरुषोंकी सङ्गतिसे ही निर्विकार रह सकता है।
जो मनुष्य इस तारुण्यको पाकर भी निर्विकार रहते हैं उनकी प्रशंसा करते हैं:
अध्याय
दुर्गेपि यौवनवने विहरन् विवेक,चिन्तामणि स्फुटमहत्त्वमवाप्य धन्यः । चिन्तानुरूपगुणसंपदुरुप्रभावो, वृद्धो भवत्यपलितोपि जगाद्विनीत्या ॥ ९९॥