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अनगार
यह यौवनरूपी वन यद्यपि दुर्गम है-दुःखके साथ भी लोग इसको पार नहीं कर सकते और इसका अतिक्रमण नहीं करसकते; फिर भी जो मनुष्य इसमें विहार करते हुए भी, स्फुट है महत्व जिसका ऐसे विवेकरूपी चिन्तामणिको पाकर, चिन्ताके अनुरूप गुणसंपत्तिके महान् प्रभावसे युक्त होजाते हैं वे धन्य हैं । और ऐसे पुरुषोंको जरा विकारसे रहित रहनेपर भी जगतको शिक्षादि देनेकी अपेक्षा वृद्ध ही समझना चाहिये ।
भावार्थ:-जो युवा होकर भी विवेकसे युक्त रहते हैं और गुणोंसे प्रभावित होजाते हैं वे धन्य हैं। योग्य और अयोग्य अथवा हित और अहित विषयमें विचार करनेकी चतुरताको विवेक कहते हैं । यह विवेक चिन्तामाणि रत्नके समान है। क्योंकि इससे अभिलषित पदार्थोकी प्राप्ति होसकती है। इसकी महिमा और जगत्पूज्यता प्रकट है । क्योंकि मोक्षके कारण संयमका भी इसीके निमित्तसे साधन हो सकता है। अत एव इस विवेकचिन्तामणिके निमित्तसे मनुष्योंको एसी गुणसंपत्तियां इच्छानुरूप प्राप्त होजाती हैं कि जिनका प्रभाव-शक्तिविशेष अचिन्त्य है । जो यौवनमें ही इस विवेकके द्वारा प्राप्त हुए गुणप्रभावसे भूषित होजाते हैं उन्हे युवा न समझकर वृद्ध ही समझना चाहिये । क्योंकि वे भी जगत्को वृद्धोंकी तरहसे ही शिक्षादिक देसकते हैं । किंतु ऐसे धन्य पुरुष विरल ही हो सकते हैं।
___ असाधु और साधु पुरुषों के साथ संभाषण या संसर्गादि करनेसे जो फल प्राप्त होता है उसको दृष्टांतद्वारा प्रकट करते हैं:
सुशीलोपि कुशीलः स्यादुर्गोष्टया चारुदत्तक्त् । कुशीलोपि मुशीलः स्यात् सद्गोष्टया मारिदत्तवत् ॥ १..॥
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अध्याय
ANNEL
समीचीन और प्रशस्त
आचरणवाला भी पुरुष दृष्ट जनोंकी संगतिमें पडकर अथवा उनके साथ संभा
अ. ध. ५१