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बनगार
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क्षोभको प्राप्त होजाता है-विकृत होकर अपनी स्वाभाविक प्रकृतिसे चलायमान होजाता है। और पवित्र गङ्गादिक नदियोंको उन्मार्गगामिनी बनाता हुआ अपना आश्रय लेकर रहनेवाले मत्स्यादिकोंको भी प्रायः करके कुशलतासे भ्रष्ट करदेता है। उसी प्रकार जो मनुष्य स्वस्थ-सदा अच्छी तरह प्रसन्न अथवा निर्मल रहनेवाला है, और कुलीन लोकपूजित कुलमें उत्पन्न भी हुआ है, तथा जिनके ज्ञान संयमादिक गुणोंकी दीप्ति भी अपना प्रकाश करनेकेलिये प्रतिक्षण बधती जाती है वह भी नवीन वय-तारुव्यको पाकर-युवावस्थामें धीरे धीरे क्षुब्ध होजाया करता है। निर्मलता कुलीनता और ज्ञानसंयमप्रभृति गुणों से युक्त अपनी साविक प्रकृतिसे चलायमान होकर अनेक प्रकारके विकृत भावोंसे युक्त होजाया करता है । तथा सोत्सेक गर्जना करनेवाले मूढ लोकोंके आशाचक्रप्रत्याशा-अभिलाषाकी परम्पराओंमें विविध प्रकारसे फसे हुए, भोगों इष्टविषयके उपयोगोको अच्छी तरहसे पूर्ण करनेवाला बनकर गङ्गादिक नदियों के समान पवित्र प्रवृत्तियों-मन वचन कायकी कृतियोंको उन्मार्गगामी बनाता हुआ विषयसेवनमें प्रवृत्त कराता हुआ प्रायः करके अपने आश्रित रहनेवाले शिष्यादिकोंको भी श्रेयोमार्ग-आत्महितसे भ्रष्ट करदेता है।
भावार्थ-यौवन अवस्थामें प्रायः मनुष्य कुलीन अथवा ज्ञान संयमादिके अभ्यासमें निरंतर रहने पर भी विकृत हो ही जाता है और सगर्व गर्जना करनेवाले जड मनुष्योंके आशान्वित भोगोंकी पूर्ति करनेमें उन्मुख हो ही जाता है - सिद्धि या यन्त्र मन्त्रादि बताकर उनकी भोगोपभोगसम्बन्धी अभिलाषाओंके सफल बनानेमें सहायक हो ही जाता है। यह इस अवस्थाका ही दोष है कि वह इस प्रकारसे अपनी प्रवृत्तियोंका दुरुपयोग कर डालता है। ऐसे मनुष्यकी संगतिसे अथवा सेवा आदि करनेमें रहनेसे मनुष्य श्रेयोमार्गसे भ्रष्ट ही हो सकता है । अत एव साधुओंको वृद्धोंकी ही संगति करनी चाहिये; क्योंकि युवावस्थाका विश्वास नहीं है। जैसा कि लौकिक पुरुष कहा भी करते हैं कि:
अवश्यं यौवनस्थेन क्लीबेनापि हि जन्तुना । विकारः खलु कर्तव्यो नाविकाराय यौवनम् ।।
बध्याय
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