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अनगार
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ना करता है। अथवा ठीक ही है, संप्रत्यय-अतद्गुण वस्तुमें तद्गुणताका आभनिवेश ही है प्रत्यय-कारण जिसका ऐसे सुखमें आसक्त हुआ ऐसा कौन पुरुष होगा जो कि क्लेश-दुःखका अनुभव करसके कोई नहीं।
भावार्थ-जुगुप्स्य भी स्त्रीशरीरको वस्त्रादिकोंके द्वारा सजाकर और उसमें मनोज्ञताका प्रत्यय कर संसारी जन जो सुखका अनुभव करते हैं उसका कारण केवल मिथ्याभिनिवेश ही है ।
जो बहिरात्मा या ऐसे अज्ञानी मनुष्य हैं कि जिनकी बुद्धि निरंतर विषयों में ही अच्छी तरहसे मूर्छित रहा करती है और जो स्त्रियोंके अत्यंत निन्दनीय उपस्थ स्थानमें ही लालसा रखते हैं उनके दुःसह दुःखोंका उपभोग कराने की योग्यतासे युक्त असाधारण कारणरूप उद्योगपर खेद प्रकट करते हैं।--
विष्यन्दिक्लेदविश्रम्भसि युवतिवपुःश्वभ्रभुभागभाजि क्लेशाग्निक्लान्तजन्तुव्रजयुजि रुधिरोद्गारग) रायाम् । णाद्यनो योनिनद्यां प्रकुपितकरणप्रेतवर्गोपसगैं, मूर्छालः स्वस्यबालः कथमनुगुणये? तरं वैतरण्यम् ॥ ९५ ॥
अध्याय
तरुणी रमणियोंके शरीररूपी नरकभूमिके एक नियत स्थानमें अवस्थित, एवं क्लेद-उबला हुआ-उष्णद्रव द्रव्यरूपी दुर्गन्धियुक्त जल निरन्तर बहता रहता है, तथा जो क्लेश-नाना प्रकारके दुःखरूपी अग्निसे संतप्त हुए प्राणिसंघातसे पूर्ण है और जो बाहिर निकलते हुए-बहते हुए रुधिरकी गर्दा ग्लानिसे उद्रिक्त है, ऐसी योनिरूपी नदीमें जो लम्पट-लालसायुक्त रहता है और जो अत्यंत कुपित हुए इन्द्रियरूपी प्रेतवर्ग-नारकियोंके उपसर्ग-उपद्रवोंसे मूर्छित होजाता है, ऐसा यह अज्ञानी मनुष्य खेद और आश्चर्य है कि वैतरणी नदीमें अपनेको तरने या तरकर पार होने योग्य किस तरह बना सकेगा। .
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