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अनगार
DHMIRASRAMERAKHELKHANKalinsa
वेधा वेद्मि सरीसृजीति तदुपस्कारकसारं जगत,
को वा क्लेशमवैति शीण रतः संप्रत्ययप्रत्यये ॥ ९४ ॥ जिसके निमित्तसे हृदय संकुचित होने लगता है ऐसे बीभत्स रसके ही उत्पन्न होनेमें आलम्बन या उदीपनरूप दोष धातु मल प्रभृति कारणभूत पदार्थोंके संघातों-स्कन्धोंसे स्त्रियोंके ऐसे शरीरको, जो कि उपमुक्त आहारादिके पकानेकेलिये मानों चरु-बटलोईके समान है और मूत्र पुरीष आर्त प्रभृति ग्लानिके उत्पादक पदार्थोके ही रहनेका मानों स्थान है, नथा प्रस्वेद-पसीनाके निकलने के लिये मानों धारागृह-निर्झरस्थानके तु. ल्य है, बनाकर अब जो विधाता भोगोपभोगके साधनभूत पदार्थोंके ही प्रपञ्चरूप इस जगत्को पुनः पुनः बनाता है उसका सारभूत प्रयोजन एक ही मालुम पडता है । वह यह कि, अब उस शरीरका उपकार करदिया जाय-इन जगत्के समस्त उत्तम पदार्थोंसे उस स्त्रीशरीरको सुगन्धित और रमणीय बना दिया जाय । क्योंकि यह चराचर जगत् कामिनियोंके शरीरमें रमणीयताके संपादनद्वारा ही कामी पुरुषोंके मनमें परम निवृत्ति-उपरतिको उत्पन्न कर सकता है। देखते हैं भी कि लोकमें उन्होंने रमणियोंके उपभोगको ही परम पुरुषार्थ माना है। जैसा कि भट्ट रुद्रटने भी लिखा है कि
राज्ये सारं वसुधा वसुन्धरायां पुरं पुरे सौधम ।
सौधे तल्पं तल्पे वराङ्गनानङ्गसर्वस्वम् ।। राज्यमें सारभूत पदार्थ वसुधा- पृथ्वी है। वसुंधराका भी सार नगर, और नगरका भी सार महल है। एवं महलमें सारभूत पदार्थ पलंग, और पलंगका भी सारभूत रमणीय रमणियोंका .रमणसर्वस्व है।
अत एव कहना पडता है कि असुन्दर स्त्रीशरीरको सुंदर बनाने अथवा उसकी जुगुप्स्यता या अशुचिः ताको छिपानेकेलिये ही मानों ब्रह्मा भोगोपभोगके साधन ही जिसमें एक सार हैं ऐसे जगत्की बार वार रच
अध्याय
ANEKALKakakakakaal
अ. ध. ५०