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बनगार
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हे मुमुक्षो साधो ! इस ब्रह्मचर्यके विषयमें श्रेय कल्याण अथवा सम्यक्चारित्रके प्रबन्ध-अव्युच्छित्तिका प्राप्त करने की इच्छासे- यदि तू आत्महित और ब्रह्मचर्य व्रतको पूर्ण करना चाहता है तो तुझको निरंतर सद्गुरुओं-उन वृद्ध आचार्योकी सेवा-आराधना करनी चाहिये जो कि नीतिका सदा आदर करने वाले हैं उसके जाननेवाले और तदनुकूल सदा व्यवहार करनेवाले हैं। तथा जिनका कुल पिता या गुरुका वंश उनके आशयों मनोवृत्तियों को सदा उत्पथमें जानेसे अंकुशकी तरहसे रोके रहता है । क्योंकि जो कुलीन पुरुष हैं वे दुरपबादके भयसे- अपकीर्तिके डरसे कभी भी अकृत्यमें प्रवृत्ति नहीं करते-वे सदा दुष्कृत्योंसे ग्लानि ही किया || करते हैं । और जिनका मनोभू-कामदेव या उसका संस्कार, सद्गुरुओं-समीचीन उपदेष्टाओंके वचनपर अवस्थान करनेके कारण -उनके उपदेशानुसार चलनेसे सर्वथा अस्त हो चुका है। तथा जिनकी संसारकी पीडाओंसे भीति विपुल होगई-जिनका संवेग प्रतिक्षण बढता ही जाता है। और परोपकार - दूसरोके हितके सिद्ध करने में प्रवृत्ति करनेमे ही जिनको नित्य हर्षका अतिरेक हुआ करता है । जो हर्षके साथ सदा परोपकारमें प्रवृत्ति किया करते हैं। जिनका महान् उदय-मोक्ष निकटकालवत्ती होचुका है-जो उसी भवमें या कुछ ही भवमें मोक्षको प्राप्त करेंगे । जिनके शुद्ध चिदानन्दानुभवके अनुभावों-तत्काल उत्पन्न हुए रागादिकोंके प्रक्षय तथा जातिवर और सकारणवैरके उपशमन और उपसर्गोंके निवारण आदिकोंका उदय - उत्कर्ष सदा बना रहता है, यद्वा जिनको समरसौभावके कार्य बुद्धि तप बल विक्रिया औषधि प्रभृति ऋद्धिरूप अभ्युदयकी प्राप्ति होचुकी है।
भावार्थ-कुलीनताके कारण संयत मनोवृत्ति, और गुरूपदेशानुसार निष्कामताकी सिद्धि, बढता हुआ संवेग, सानन्द परोपकारमें प्रवृत्ति, निकटभव्यता, शुद्ध चिदानन्दानुभवके कार्यकारणकी प्राप्ति, इन छह विशेषणोंसे युक्त वृद्धाचार्योंकी साधुओंको अपने ब्रह्मचर्यकी सिद्धिकेलिये अवश्य ही और निरंतर आराधना करनी चाहिये क्योंकि ऐसा करनेपर ही उनका ब्रह्ममहाबत निर्मल रह सकता है । जैसा कि कहा भी है किः
अध्याय
. य: करोति गुरुभाषितं मुदा संश्रये वसति वृद्धसंकुले ।
मुञ्चते तरुणलोकसंगतिं ब्रह्मचयममलं स रक्षति ॥