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अनगार
धर्मः .
कुचौ मांसग्रन्थी कनककलशावित्यभिसरन्,सुधास्यन्दीत्यङ्गत्रणमुखमुखक्लेदकलुषम् । पिबन्नोष्ठं गच्छन्नपि रमणमित्यार्तवपथं,
भगं धिक् कामान्धः स्वमनु मनुते स्वःपतिमपि ॥ ९२ ॥ खियोंके कुचोंको जो कि गदाके आकारमें बन जानेवाली मांसकी ग्रंथी-गाठे हैं उनको पीनता उन्नतता और कठिनता गुणके कारण सुवर्णका कलश समझ कर जब आलिङ्गन करने लगता है, तथा शरीरके व्रणके समान अत्यंत अशुचिरूप पदार्थके बहने या निकलनेके द्वारके सदृश मुखके क्लेदसे कश्मल हुए ओष्ठको जब अमृतका झरना समझ कर पीने-चूसने लगता है-उनके रसका स्वाद लेने लगता है, और जब रजके वहनेके मार्ग योनिरन्ध्रको अत्यंत रमणीय स्थान समझ कर भागने लगता है, उस समय कामसे अन्धा हुआ यह पुरुष--जिसको कि मन्मथ-मोहके कारण वस्तुका वास्तविक स्वरूप सूझता ही नहीं है। धिक्कार है कि दूसरे साधारण मनुष्योंकी तो बात ही क्या, स्व
पति-इन्द्रसे भी अपनेको अधिक उत्कृष्ट समझने लगता है। भावार्थ-जो इतना कामसे अन्धा होजाता है कि अत्यंत अशुचि और अस्पृश्य पदार्थों में भी रमण करने लगता है तथा उनके सेवन करने में भी जो इतना राग करने लगता है कि इन वस्तुओंकी प्राप्तिके सामने उत्तम व्यक्तियोंको भी हीन मानने लगता है उसको अब धिक्कार देनेके सिवाय और क्या कहें।
जिस समय दृष्टि स्त्रियोंके शरीरमें अनुराग करनेकी तरफ प्रवृत्त हो कि उसी समय - झटिति प्रबुद्ध हुआ उनके स्वरूपका परिज्ञान ही उत्पन्न होनेवाले मोहको दूर कर सकता है, यही बात दिखाते हैं:
रेतःशोणितसंभवे बृहदणुस्रोतःप्रणालीगलद्गोंगारमलोपलक्षितनिजान्तर्भागभाग्योदये ।
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