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बनमार
मूर्तिश्चाजिनकृदूहातप्रतिकृतिः संस्काररम्या क्षणाद्,
ब्यांजिष्यन्न नृणां यदि स्वममृते कस्तषुदस्थास्यत ॥ ९१ ॥ स्त्रियों और पुरुषोंके केशपास मुख और शरीरका वास्तविक स्वरूप देखा जाय तो कुछ और ही है । केशसमूह तो, गौ बैल भैंस आदि पशुओंकी मक्खियोंको उडानेका जो व्यंजन अथवा पूंछ के बालोंका जो गुच्छा उसी वंशमें, उत्पन्न हुआ है। क्योंकि जो उस व्यजनका गोत्र है वही निन्द्य गोत्र स्त्री और पुरुषों के बालोंका भी है। इसी प्रकार यदि मुखको देखा जाय तो जैसी चमारोंके घरमें दुर्गन्ध आया करती है वैसी ही इसमें आती है। शरीरको यदि देखा जाय तो उसको भी ठीक वैसा ही समझना चाहिये जैसी कि चमारोंके यहांपर रंगी मशक हुआ करती है। किंतु देखते हैं कि ये तीनों ही अपने इस वास्तविक रूपको लोगोंके सामने प्रकट न कर उन्हे विपर्यास ही उत्पन्न कराते हैं। स्त्रियोंके सामने पुरुषोंके और पुरुषोंके सामने स्त्रियोंके केशसमूह अपनेको संस्कार-अभ्यङ्ग स्नान सुगन्धित धूपनादिके द्वारा उज्ज्वल-सुन्दर सुगन्धित मनोहर और प्रदीप्त प्रकट करते हैं । मुख अपनेको ताम्बूलकी सुगन्धसे सुगन्धित मनोहर और महान् प्रकट करता है । तथा शरीर भी स्नानामुलेपनादिके द्वारा अपनेको रमणीय प्रकाशित करता है । परन्तु क्षणभरकेलिये भी यदि ये ऐसा न करें-संसारके स्त्रियों और पुरुषोंको अपने स्वरूपके विषयमें विपर्यास उत्पन्न करानेका प्रयत्न न करें तो फिर कौन बुद्धिमान् मनुष्य होगा जो कि अमृतपद-मोक्षकलिये तपस्यादि करनेका प्रयत्न करे ।
भावार्थ:- यद्यपि ये तीनों ही लोगोंको विपर्यास ही उत्पन्न कराते हैं फिर भी मुमुक्षुओंको चाहिये कि वे इनके विपर्यासमें न आकर इनके वास्तविक स्वरूपका ही विचार किया करें; जिससे कि उनके निर्वेदकी सिद्धि होकर अभीष्ट प्रयोजन-मोक्षके साधनमें भी सहायता प्राप्त हो।
जो कामसे अन्धा हुआ पुरुष अपनेमें उत्कर्षकी संभावना करता है, अपनेको महान् समझने लगता है उसके प्रति धिक्कार प्रकट करते हैं:
बध्याय