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तन्वीवपुषीन्द्रजालवदलंभ्रान्तौ सजन्त्यां दृशि,
द्रागुन्मीलति तत्त्वदृग् यदि गले मोहस्य दत्तं पदम् ॥ ९३ ॥ तन्वङ्गी-ललनाओंके शररिका यदि वास्तविक स्वरूप देखाजाय तो वह शुक्र और शोणितको उत्पन्न करनेका स्थान अथवा इनको उत्पन्न करनेवाला है । तथा इसमें प्रणालिकाओं-मोरिओंके समान जो बडे और छोटे छिद्र पाये जाते हैं उनसे अत्यंत ग्लानिके उत्पादक विष्टा मूत्र नाक थूक श्लेष्मा प्रस्वेद प्रभृति बहते हुए मल लोगोंको इस बातका अनुभव या ज्ञान करादेते हैं कि इनके अन्तर्भागमें-भीतर कितना और कैसा माग्यका उदय है। फिर भी यह शरीर जैसा कि ऊपर भी कहा जा चुका है लोगोंको भ्रांति-विपर्यास करानेमें पूर्णतया समर्थ है। किंतु इसकी तरफ दृष्टिके अनुरक्त-विपर्यासकी तरफ उन्मुख होते ही, निगाह जाते ही यदि साधुओंका तत्त्वज्ञान झटिति जागृत हो उठता है--शरीरके वास्तविक स्वरूपकी तरफ उनका लक्ष्य चला जाता है, तो कहना चाहिये कि उन्होंने मोहके गलेपर पैर देदिया । लात मारकर चारित्रमोहनीय कर्मका तिरस्कार करदिया और उसपर विजय प्राप्त करली ।
भावार्थ--जो स्त्रियोंके शरीरमें अनुरागका निमित्त पाते ही तत्त्वज्ञानसे काम लेते हैं और उसमें राग न करके उनके वास्तविक स्वरूप-अशुचिताका विचार करने लगते हैं वे ही साधु मोहकर्भको जीतकर अपने ब्रह्मचर्यमें वृद्धि और अभीष्ट पदकी सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं।
स्त्रियोंका शरीर वस्तुतः सुन्दर नहीं है किंतु रमणीय आहार वस्त्र भूषण अनुलेपनादिकी सजावटसे वैसा मालुम पडने लगता है, इसी बातको प्रौढोक्ति के द्वारा प्रकट करते हैं: -
वर्च:पाकचरुं जुगुप्स्यवसतिं प्रस्वेदधारागृहं, बीभत्सैकविभावभावनिवहनिर्माय नारीवपुः ।
अध्याय