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__ थोडासा भी स्त्रीसंपर्क--उनकी संगति या संसर्ग, संयत पुरुषके स्वार्थ-आत्मकल्याणको भ्रष्ट करदेता है, ऐसी शिक्षा देते हैं:- .
कणिकामिव कर्कट्या गन्धमात्रमपि स्त्रियाः।
स्वादुशुद्धां मुनेश्चित्तवृत्तिं व्यर्थीकर त्यरम् ॥ ८४ ॥ जिस प्रकार कचरीकी गन्धमात्रसे ही स्वादु-मधुर और शुद्ध-स्वच्छ पवित्र भी गोधूमचूर्ण-आटा खराब होजाता है उसी प्रकार स्त्रियोंकी गंधमात्रसे ही मुनियोंकी स्वादुशुद्ध-आनन्द और वीतरागतासे युक्त मी मनोवृत्ति क्षणमात्रमें खराब होजाती है। .'
भावार्थ-मुनियोंकी समस्त प्रवृत्तियां कर्मक्षपणकेलिये हुआ करती हैं। अत एव शुद्धात्मस्वरूपके अनुभवसे उत्पन्न हुए आनंद और वीतरागतासे युक्त मनोवृत्तिका भी प्रयोजन कर्मक्षपण ही है। किंतु त्रियाका आलोकन स्पर्शन संभाषण कथोपकथन आदिकी तो बात ही क्या, गंध भी उस मनोवृत्तिको मलिन बनाकर व्यर्थ करदेती है। क्योंकि उससे जो प्रयोजन सिद्ध होना चाहिये सो न होकर विरुद्ध ही अर्थ-प्रयोजन सिद्ध होता है। कोका क्षय न होकर संचय ही होता है । अत एव साधुओंको स्त्रियोंका संसर्ग ऐसा दरसे ही छोड देना चाहिये कि जहाँसे उनकी गंध भी न आसके । तभी उनका प्रयोजन सिद्ध हो सकता है। अन्यथा नहीं ।
स्त्रीसंगतिके दोषोंको दृष्टांतद्वारा स्पष्ट करके बताते हैं:
बध्याय
सत्त्वं रेतश्छलात्पुमां घृतवद् द्रवति द्रुतम् । विवेकः सूतवत्वापि याति योषानियोगतः ॥ ८५ ॥