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प्रकारसे उसके भीतर आकर ऐसा विकृत करदेती हैं कि जिसका सहसा प्रतीकार नहीं हो सकता । ऐसा भय उत्पन्न करके उनका परिहार करनेकेलिये मुमुक्षुओंको सावधान करते हैं:
Fill धर्म
अनगार
चित्रमेकगुणस्नेहमपि संयमिनां मनः । यथातथा प्रविश्य स्त्री करोति स्वमयं क्षणात ॥ ८३
संयमियोंका मन यद्यपि एकगुणस्नेह है फिर भी आश्चर्य है कि जिस किसी भी तरहसे स्त्रियां उसमें प्रविष्ट होजातीं और क्षणमात्रमें उसको अपने रूप करलेती हैं।
भावार्थ--जिस पदार्थमें स्निग्धत्त्व या रूक्षत्त्व गुणका एक ही गुण-अंश-अविभाग प्रतिच्छेद रहता है उसका किसी भी दूसरे पदार्थके साथ बंध नहीं हो सकता। जैसा कि कहा भी है कि " न जघन्यगुणानाम् " जघन्यगुण - एक अविभागप्रतिच्छेदसे युक्त पदार्थका किसीके भी साथ बंध नहीं होता ऐसा नियम है।
और यह नियम है कि बंध होनेपर अधिक गुणवाला कम गुणवालेको अपनेरूप परिणत करलेता है । तथाच "बन्धेऽधिको परिणामिको"। किंतु प्रकृतमें यह बात विरुद्ध नजर आनी है कि स्त्रियोंका एकगुणस्नेहवाले भी संयमियोंके मनसे सम्बन्ध होजाता है और वे उसको अपने रूप करलेती हैं। अत एव इस विरोधाभासका परिहार करनेकेलिये ऐसा अर्थ समझना चाहिये कि--संयमियोंका मन यद्यपि सम्यग्दर्शनादिक गुणों में ही उत्कृष्टतया अथवा इन उत्कृष्ट गुणोंमें ही अनुराग रखनेवाला है। यद्वा एकगुण--एकत्वमें ही स्नेह रखनेवाला है; क्योंके मुमुक्षु साधु समस्त बाह्य उपाधियोंसे रहित एकाकी होना चाहते हैं अथवा शरीर और कर्म नोकर्मके सम्बन्धसे भी रहित होकर शुद्धात्मस्वरूप ही होना चाहते हैं। फिर भी आलोकन संभाषण आदिके द्वारा उसकी प्रवृत्ति स्त्रियों की तरफ झुकजाती है और उससे वह विकृत होजाता है। अत एव साधुओंको अपने ब्रह्मचर्य महाव्रतकी वृद्धिकेलिये और उसके कारणभूत स्त्रीवैराग्यकी सिद्धिकेलिये स्त्रियोंके साथ आलोकन संभापण भी न करना चाहिये।
अध्याय