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बनगार
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सत्कार्यवादमाहत्य कान्ता सत्यापयत्यहो ॥ ८१ ॥ अपाङ्ग वल्गन-कटाक्षपातके द्वारा दर्शकके हृदयमें तत्क्षण ही अपने स्वरूपको अभिव्यक्त करदेनेवाली कान्ता-प्रमदा, अहो, कितने कष्ट और आश्चर्यकी बात है कि बिना प्रमाणके जबर्दस्ती ही सांख्योंके सत्कार्यवादको सत्य साबित करदिया करती है।
भावार्थ-सांख्योंका सिद्धान्त है कि:
असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसंभवाभावात्।
शक्तस्य शक्यकरणात्कारणभावाञ्च सत्कार्यम् ॥ जितने भी कार्य हैं वे सभी सतरूप हैं-सदा उपस्थित रहनेवाले हैं। क्योंकि एक तो यह नियम है कि असत्की उत्पत्ति नहीं हो सकती-जो पदार्थ नहीं है वह कभी उत्पन्न भी नहीं हो सकता । दूसरे वह कार्य अपने उपादानको ग्रहण करता है । यह नियम है कि उपादानके गुण कार्यमें आया करते हैं। और यह बात तभी हो सकती है जब कि कार्य सत् हो । क्योंकि जो स्वयं असत् होगा वह उपादानके गुणोंको भी ग्रहण किस तरह कर सकेगा। तीसरे, एक पदार्थसे सभी कार्योंकी उत्पत्ति नहीं होती, यदि कार्य असतरूप होता तो सभी पदार्थोंसे सब कार्य उत्पन्न हो सकते थे। चौथे, जो पदार्थ जिस कार्यके उद्भूत करनेमें समर्थ है उसीसे वह उत्पन्न-व्यक्त होता है. अन्यसे नहीं। यदि कार्य असत् होता तो चाहे जिस पदार्थसे, चाहे जो पदार्थ उत्पन्न हो सकता था। पांचवें, कार्यकारणभाव भी तभी बन सकता है जब कि कार्य सद्प हो । यदि कार्य असत् हो तो चाहे जिससे भी वह उत्पन्न हो सकता है। किंतु ऐसा नहीं है । इससे मालुम पडता है कि कार्य सद्प ही है । यह सांख्योंका सिद्धान्त यद्यपि अमत्य है प्रमाणसिद्ध नहीं है। फिर भी ये प्रमदाएं अपनी चेष्टाके द्वारा जबर्दस्ती उसको सिद्ध करनेका प्रयत्न करती हैं कि उनके कटाक्षका निरीक्षण करते ही मनुष्यके हृदयमें उनका स्वरूप अभिव्यक्त हो जाता है। और फिर वे ही वे दीखने लगती हैं।
अध्याय