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अनगार
ISISTERSTURES
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SENTENTRA
भावार्थ- सरत वैभाविक भावों और उनके कारणोंसे रहित होकर शुद्ध बुद्ध आत्मस्वरूपमें रमण करने को ब्रह्मचर्य कहते हैं । जैसा कि कहा भी है किः ..
निरस्तान्याङ्गरागस्य स्वदेहेपि बिरागिणः ।
जीवे ब्रह्मणि या चर्या ब्रह्मचर्यं तदीयते ॥' __ अपने और दूसरेके भी शरीरमें रागरहित पुरुषको जो आत्मस्वरूप ब्रह्ममें चर्या होती है उसको ब्रह्म चर्य कहते हैं । यह सब व्रतोंमें प्रधान है । अत एव इसके निरतीचार पालनेसे ही अविनश्वर अनन्त आत्मिक सुख प्राप्त हो सकता है। दश प्रकारके ब्रह्मचर्यकी सिद्धिकेलिये दश प्रकारके अब्रह्मका त्याग करनेकी प्रेरणा करते हैं:
मा रूपादिरसं पिपास सुदृशां मा वस्तिमोक्षं कृथा, वृष्यं स्त्रीशयनादिकं च भज मा मा दा वराङ्गे दृशम् । मा स्त्री सत्कुरु मा च संस्कुरु रतं वृत्तं स्मरस्मार्य मा, वत्स्यन्मेच्छ जुषस्व मेष्टविषयान् द्विःपञ्चधा ब्रह्मणे ॥ ६१ ॥
अध्याय
। हे आर्य ! दश प्रकारके ब्रह्मचर्यका पालन करनेकेलिये-देव गुरु और सधर्माओंकी साक्षीसे ग्रहण किये हुए मैथुनविरतिरूप व्रतकी सिद्धिकलिये इन दश कार्मोको तू मत कर-एक तो सुंदरियोंके रूपादिक रसका पान करनेकी अभिलाषा मत कर। उनके मुख प्रभृति अंगोंके सौंदर्यका चक्षुओंके द्वारा, बिम्बाफलके समान ओष्ठोंके रसका जिह्वा इंद्रियके द्वारा, निःश्वसितादिककी सुंदर गंधका घ्राणेंद्रियके द्वारा, पीन-घन और उन्नत
१-इन्द्रियग्राह्य पदार्थोंके स्वादको रस कहते हैं ।