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UIDASHARE
बनगार
धर्म
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प्राणोंका भी अपहरण कर डालती है। और यदि वह बोष संतोष करने लगे-प्रसन्न होजाय तो उस मनुष्यसे इस लोक और परलोक-दोनो ही जगहपर अपनी इच्छानुसार चेष्टाएं कराकर उसको पीस डालती है । उसके समस्त पुरुषार्थीका उपमर्दन कर चूर्ण कर देती है-उसको बिलकुल भ्रष्ट कर देती है। इस तरहकी इस सीप र्यायके विषयमें हे मित्र ! यदि तू दोषज्ञ है-जिनका कि पहले उल्लेख किया जा चुका है उनको तथा और भी स्त्रीदोषोंको यदि तू जानता है तब तो सचमुचमें ही तू दोषद-पण्डित है। .
भावार्थ:--जो वस्तुओंके यथावस्थित दोषोंको जानता है उसको दोषज्ञ कहते हैं । अत एव दोषज्ञ नाम पण्डितका है। और इसी सामान्य अर्थकी अपेक्षासे कोषादिकमें भी पण्डितके पर्यायवाचक शब्दोंके साथ दोपत्र शब्दका भी पाठ किया है । यथा “ विद्वान् विपश्चिद् दोषज्ञः" । किंतु ग्रंथकार कहते हैं कि मैं वस्तुतः दोषज्ञपण्डित उसको समझता हूं जो कि स्त्रियोंके दोषोंको जानता है। दूसरे दोषोंको वह जाने या न जाने, यदि खा. दोषोंको जानता है तो वह जरूर पण्डित है। और यदि दूसरे पदार्थों के दोषोंको जानते हुए भी स्त्रीदोषोंको नहीं जानता तो वह वस्तुतः दोषज्ञ--- पण्डित नहीं है । अतएव मुमुक्षु विद्वानोंको सबसे पहले सीदोषोंके जाननेका प्रयत्न करना चाहिये । इसके विना उनके स्त्रीवैराग्यकी सिद्धि ब्रह्मचर्यकी वृद्धि नहीं हो सकती!
स्त्रियां खभावसे ही चंचला-प्रतारणा करनेवाली है और इसी लिये वे एक दुःखको ही कारण हैं। इस वाको दिखाते हुए भी प्रकट करते हैं कि फिर भी लोक उनपर निरन्तर मुग्ध ही होते हैं:
लोकः किं नु विदग्धः किं विधिदग्धः स्त्रियं सुखाङ्गेषु ।
यद्धरि रेखयति, मुहुर्विश्रम्भं कृन्ततीमाप निकृत्या ॥७३ ॥ बहा मालूम नहीं ये संसारी प्राणी विदग्ध-व्यवहारकुशल पुरुष हैं अथवा विधिदग्ध हैं. पूर्वसंचित दुष्कर्मने इतनी बुद्धि भ्रह करदी है ? क्योंकि ये लोग सुखके कारणोंकी गणना करते समय सबसे पहले उस खोकी गणना किया करते हैं जो कि बचना प्रतारणाके द्वारा वारवार विश्वासका घात किया करती है।
अध्याय