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अनगार
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होते ही नष्ट करदेनेवाला है; निमग्न होता हूं । इस प्रकार कामके दोषोंका विचार कर साधुओंको जिस समय वह कामदेव उद्धृत होनेके सम्मुख हो तभी उसका निग्रह करदेना चाहिये । क्योंकि उत्पन्न होजानेपर फिर उसकी कोई भी चिकित्सा नहीं हो सकती; जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है। और कहा भी है कि "न कामस्यास्ति किंचिचिकित्सितम् । " कामदेवका कोई इलाज ही नहीं है । अत एव साधुओंको उत्पन्न होते ही, जैसा कि ऊपर बताया है वैसी भावनाओं के द्वारा, कामवासनाका निग्रह कर डालना चाहिये-उसको दबा देना चाहिये । यही उसपर विजय प्राप्त करनेका उपाय है।
पहले ब्रह्मचर्यकी वृद्धिके लिये स्त्रीवैराग्यकी कारण पांच भावनाओंको निरंतर भानेका उपदेश दिया था । उनमेंसे पहली कामदोषभावनाका यहां व्याख्यान किया । अब स्त्रीदोष भावना प्रकरणप्राप्त है अत एवं छह पद्योंमें उसीका व्याख्यान करना चाहते हैं। किंतु पहले जो स्त्रियोंके दोषोंको जानता है वही वस्तुतः पं. ण्डित है, यह बात मुमुक्षुओंको अभिमुख करके कहते हैं:
पत्यादीन् व्यसनार्णवे स्मरवशा या पातयत्यञ्जसा, . रुष्टा न महत्त्वमस्यति परं प्राणानपि प्राणिनाम् । तुष्टाप्यत्र पिनष्टयमुत्र च नरं या चेष्टयन्तीष्टितो, दोषज्ञो यदि तत्र योषिति मखे दोषज्ञ एवासि तत् ॥ ७२ ॥
छह पोंमें उसीका व्याख्या भावनाका यहां व्याख्यान किया पाच भावनाओंको निरंतर भाने
अध्याय
जो स्त्री स्मरके वश में होकर-कामदेवके अधीन होकर पति पुत्र पिता तथा पितृतुल्य गुरु आदिकोंको भी व्यसनके समुद्र में पटक देती है-उनकी अकल्याणमें प्रवृत्ति करादेती है। और जो रोष और तोष दोनो ही अवस्थाओंमें मनुष्यका अहित ही करनेवाली है। यदि वह वस्तुतः रुष्ट हो जाय, थुर्सता अथवा अनुनयादि करानेके अभिप्रायसे नहीं किंतु यथार्थमें ही वह कुपित होजाय तो वह दूसरे प्राणियोंके महत्वका ही नहीं किंत