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वाका गुण कहते हैं। इन गुणोंका कामके साथ विरोध है । हृदयमें इस कामदेवके जागृत होते ही सभी गुण सहसा विलीन होजाते हैं।
अनगार
जबसे संसार है तभीसे अर्थ त अनादिकालो मैथुनसंज्ञा लगी हुई है। इसके निमित्तसे ही उद्भूत हुए समस्त दुःखोंका मुझे अनुभव करना पडा ! अत एव इसको धिक्कार है । इस तरह जो मैथुन संज्ञा और उससे होनेवाले दुःखानुभवकी तरफ अतिशय रूपसे धिकृत बुद्धि रखनेवाला है वही उसपर विजय प्राप्त कर सकता है । इस प्रकार मैथुनसंज्ञाकी तरफ धिक्कारके भाव रखना ही कामभावके निग्रह करनेका उपाय है; ऐसा बताते हैं:
नि:संकल्पात्मसंवित्सुखरसशिखिनानेन नारीरिएंसा,संस्कारेणाद्ययावद्धिगहमधिगतः किं किमस्मिन्न दुःखम् । तत्सद्यस्तत्प्रबोधच्छिदि सहजचिदानन्दनिष्पन्दसान्द्रे, मज्जाम्यस्मिन्निजात्मन्ययमिति विधयेकाममुत्पित्सुमेव ॥ ७१॥
अध्याय
अन्तर्जल्पसे युक्त उत्प्रेक्षाओंको संकल्प कहते हैं । इन संकल्प विकल्योंके जालसे बहिर्भूत-रहित आत्मसंवेदन-शुद्ध निज चित्स्वरूपके अनुभवरूप अथवा उससे उत्पन्न होनेवाले सुखरस केलिये जो अनिके समान है, जिसका थोडासा भी स्पर्श होते ही आत्मिक सुखरूपी पारद सहज ही में उडजाता है ऐसे इस नारीरिरंसाके संस्कार-स्त्रियों में रमण करनेकी अभिलाषारूप भावनाको ही धिक्कार है कि अबतक मैं अधीन रहा हूं। जबसे संसार है तबसे आजतक मैं इसके वशमें रहा हूं। इसलिये मुझको धिक्कार है। इसके वशीभूत होकर ऐना कोनसा दुःख है कि जिसको मैंने नहीं पाया। इसके कारण ही मैंने नरक और निगोदतकके भी दुःखोंको भोगा है । अत एव अब मैं वारवारके आविर्भावके कारण अत्यंत निबिड और नैसनिक-स्वाभाविक ज्ञानानंदरूप अपने स्वसेवेदन प्रत्यक्षके द्वारा अनुभवमें आनेवाले चित्स्वरूपमें जो कि उस मैथुन संज्ञाके संस्कारको शीघ्र ही-प्रकर
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