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रक्ता देवरतिं सरित्यवानपं रक्ताऽक्षिपत्पङ्गुके, कान्तं गोपवती द्रवन्तमवधीच्छित्त्वा सपत्नीशिरः शूलस्थेन मलिम्लुचेन दलितं स्वोष्ठं किलाख्यत्पति,
च्छिन्न वीरवतीति चिन्त्यमबलावृत्तं सुवृत्तैः सदा ॥ ७७ ।। राजा देवरतिकी रानी रक्ताने पंगु पुरुषपर आसक्त होकर अपने पतिको नदीमें पटक दिया था; यह बात प्रसिद्ध है । गोपवतीने अपनी सपत्नी-सौतके शिरको काटकर भागते हुए पतिको भी मारडाला था, इस बातको भी सब लोग जानते ही हैं। और वीरवतीने कुशूलमें छिपकर बैठे हुए मलिम्लुच-अङ्गारक नामके चोरद्वारा अपने ओष्ठके खण्डित किये जानेपर भी अपने पतिद्वारा उसका काटा जाना जाहिर किया था, यह बात भी आगमानुसार प्रायः विदित ही है। ऐसी ही बातोंको देखकर कहना पडता है कि स्त्रियोंके दोष और उनका चरित्र बिलकुल दुर्गम है । अत एव सम्यक् चारित्रका आराधन करनेवाले मुमुक्षुओंको अपने सदाचारको शुद्ध रखनेके लिये और उसकी वृद्धिकेलिये अबलाओंके चरित्र और दोषोंका निरंतर विचार करना चाहिये । जिससे कि लि. योंमें वैराग्यकी सिद्धि और ब्रह्मचर्यकी वृद्धि हो।
इस प्रकार स्त्रीदोष भावनाका वर्णन करके अब क्रमप्राप्त स्त्रीसंसर्गका वर्णन करना चाहते हैं। उस में यहाँपर सबसे पहले, स्त्रियोंको दूर ही से छोडदेना चाहिये-उनकी संगति न करना चाहिये। यह बात उपपत्तिपूर्वक बताते हैं:
सिद्धिः काप्यजितेन्द्रियस्य किल न स्यादित्यनुष्ठीयते, सुष्ठामुत्रिकसिद्धयेऽक्षविजयो दक्षैः स च स्याद् ध्रुवम् ।
अध्याय