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भनगार
| उसके कारण कहते हैं सो केवल इसीलिये कि वे उसके सूत्रधार हैं । स्त्रियोंके रागद्वेपकी उत्कृष्ट कोटी-अन्तिम सीमा बतानेकेलिये उसकी उपपत्ति दिखाते हैं:
व्यक्तं धाना भीरसावशेषौ रागद्वेषौ विश्वसर्गे विभक्तौ ।
यद्रक्ता स्वानप्यसून व्येति पुंसे पुंसोपि स्त्री हन्त्यसुन् द्राग्विरक्ता मालुम पडता है मानो विश्व-जगतको उत्पन्न करते समय सृष्टिकर्ता-प्रमाने जब स्त्रीको उत्पन्न किया तब राग और द्वेषके सम्पूर्ण स्कन्धसे ही उसको बनाया और उसके बन चुकनेपर राग और द्वेषका जो भाग अवशेष रहा वह सब उसने अपनी समस्त सृष्टि में विभक्त करदिया। क्योंकि राग और द्वेषकी अन्तिम सीमा स्त्रीमें ही पाई जाती है। यदि वह राग करने लगे-किसी पुरुषपर आसक्त होजाय तो धनधान्यादिककी तो बात ही क्या वह उस पुरुषको अपने प्राणतक भी दे डालती है । और यदि वह विरक्त हो जाय- द्वेष करने लगे तो शीघ्र ही उस पुरुषके प्राणोंका संहार भी करडाले।
भावार्थ--खियोंके राग और द्वेष दोनों ही सर्वोत्कृष्ट होकर भी सबसे अधिक भयंकर भी हैं। जैसा कि कहा भी है कि:
ददाति रागिणी प्राणान हरति द्वेषिणी पुनः।
रागोवा यदि वा द्वेषः कोपि लोकोत्तरः खियः ॥ स्त्री यदि राग करने लगती है तो अपने प्राणोंको देदेती है और यदि द्वेष करने लगती है तो वह दूसरों के प्राणोंको लेलेती है । इस प्रकार स्त्रियोंका राग हो यद्वा द्वेष, दोनो ही लोकोत्तर हैं।
“सम्यकचारित्रका आराधन करनेवालोंको सदाचारकी विशुद्धिकेलिये दृष्टांतरूपसे स्त्रीचरित्रकी भावनाका उपदेश देते हैं:
अध्याय |
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