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अनगार
धर्म
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जिनकी भृकुटियां देखते ही मनको हर लिया करती हैं- आपात-रमणीय हैं उन वराङ्गनाओंका विभ्रमसादर या सामिलाप निरीक्षण मनुष्योंके स्वान्त-मनको भ्रान्त बना देता है- व्याकुल करदेता अथवा अयथार्थ भावकी तरफ इस तरहसे झुका देता है, जैसे कि धतूरा पीनेवालेका मन भ्रान्त और व्याकुल हो जाता है, तथा उसको सफेद भी वस्तु पीली दीखने लगती है । इसी प्रकार कामिनी कटाक्षका निरीक्षण कर भ्रांत और व्याकुल हुआ मनुष्य अहितकर भी स्त्रियोंको हितकर समझने लगता है। चित्तके भ्रांत हो जानेपर उससे लज्जा इस तरहसे निवृत्त होजाती है जैसे कि रागके उद्रेकको पाते ही वह दूर होजाया करती है। क्योंकि अत्यंत रागी मनुष्यको किसी प्रकार की भी लज्जा नहीं रहती। लज्जाके दूर होजानेपर मनमें शंका-भय, जलसे अग्निकी तरह, शांत होजाती -नष्ट होजाती है। उसको लोकनिंदा या गुरु आदिका भय नहीं रहता। इस प्रकार निर्भय होकर वह कामी अपनी अभीष्ट कामिनीपर इस तरहसे विश्वास करने लगता है जैसे कि मुमुक्षु पुरुष गुरुओंसे अध्यात्मतत्वका उपदेश सुनकर निज स्वरूपमें श्रद्धा करने लगता है । विश्वासके उद्भूत होते ही कामिनीमें उसका प्रणय-प्रेमपरिचय भी उसी तरहसे होने लगता है जसे कि गुरुके निमित्तसे आत्मस्वरूपमें भव्योंके हुआ करता है। इसके अनंतर जैसे कि कोई साधु आत्मस्वरूप में अच्छी तरह रमण करने लगता और अंतमें उसमें लीन--एकतान होजाता है उसी प्रकार कामी पुरुष भी प्रेमपरिचयके बाद अपनी अभीष्ट नायिकामें पर्याप्त रूपसे रतिकर्म करने लगता
और अंतमें लीन हो जाता है। क्योंकि जिस प्रकार साधुओंको अपने शुद्धात्म स्वरूपमें ममरस हुए विना आत्मिक सुखका अनुभवन नहीं हो सकता उसी प्रकार कामियोंको भी कामिनियोंमें लीन हुए विना सुखानुभव नहीं हो सकता । अत एव वे तल्लीन होजाते हैं-समरसीभावको धारण करने लगते हैं।
कहा भी है कि:-- लब्धायतिप्रगल्भा रतिकर्मणि पण्डिता विभुर्दक्षा। आक्रान्तनायकमना निम्यूढविलासविस्तारा। सुरते निराकुलासौ द्रवतामिव याति नायकायाज। न च तत्र विवेक्तुमलं कोयं काहं किमेतदिति ॥
अध्याय