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अन्गार
धर्मः
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चेतःसंयमनात्तपःश्रुतवतोप्येतच्च तावद्भवेद्,
यावत्पश्यति नांगनामुखमिति त्याज्याः स्त्रियो दूरतः ॥ ७८ ॥ जिसने इन्द्रियों को नहीं जीता-जो उनको अपने वशमें नहीं कर सका है ऐसे मनुष्य के इस लोकसम्बन्धी अथवा परलोकसम्बन्धी कोई भी सिद्धि-अभीष्ट अर्थकी प्राप्ति नहीं हो सकती । यह बात आगममें कही हुई है। नीतिशास्त्रमें भी ऐसा ही कहा है। यथा “ नाजितेन्द्रियस्य कापि कार्यसिद्धिरस्ति "-जो इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त नहीं कर सका है उस मनुष्यके किसी भी कार्यकी सिद्धि नहीं हो सकती। अत एव जो दक्ष पुरुष हैं जो अपने आत्महित जैसे परलोकसंबंधी कार्यके सिद्ध करनेमें उद्यत हैं वे अपने उस प्रयोजनको सिद्ध करनेकेलिये इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करनेका अच्छी तरह अनुष्ठान किया करते हैं-चक्षुरादिक इन्द्रियोंको अच्छी तरह अपने वशमें करनेका प्रयत्न किया करते हैं। किंतु यह बात निश्चित है कि यह इन्द्रियविजय तब तक नहीं हो सकता जबतक कि चित्तका संयमन न किया जाय । मनका निरोध करनेपर ही इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त हो सकता है । इसी प्रकार उन साधारण पुरुषोंकी तो बात ही क्या, जो कि तप और ज्ञानके अभ्याससे शून्य हैं; किंतु जो तपका और श्रुतका निरंतर आराधन करनेवाले हैं जो इन विषयोंमें निष्णात हैं उनके भी मनका निरोध तभी तक हो सकता है जबतक कि वे अङ्गनाओंका मुख नहीं देखते । इससे सिद्ध है कि आत्महित चाहनेवाले भव्योंकेलिये ये स्त्रियां सदा छोडदेनेके ही योग्य हैं।
भावार्थ- जब इन्द्रियों के अधीन हुए पुरुषका कोई भी कार्य सिद्ध नहीं हो सकता है। तब आत्महित जैसा सर्वोत्कृष्ट कार्य तो सिद्धही किस तरह हो सकता है । वह तो तभी मिद्ध हो सकेगा जब कि स्त्रीसंसर्गका भी परित्याग कर दिया जाय । क्योंकि स्त्रीसंसर्गसे योगियों और ज्ञानियोंका भी मन चंचल हो जाता है, उसका वे निरोध नहीं कर सकते, और उनका चित्त संयत नहीं हो सकता। एवंच मनके संयत हुए बिना वे मेक्षको भी प्राप्त नहीं कर सकते । अत एव सिद्ध है फि मुमुक्षुओंको अङ्गनाओंका मुख भी न देखना चाहिये और स्त्री मात्रकी संगति भी न करनी चाहिये ।
वध्याय
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