________________
अनगार
भयंकर है । क्योंकि सर्पकी अपेक्षा कामदेवकी भयंकरता बहुत अधिक है । सर्प के काटनेपर उतना दुःख नहीं होता जितना कि कामदेव के उद्रे पर हुआ करता है। इसी प्रकार सर्प के जहरका उतना वेग नहीं होता जितना कि कामदेवका हुआ करता है । शास्त्र में सर्पक विषक सात ही वेग प्रसिद्ध हैं। यथाः
" पूर्व दर्वीकृतां वेगे दुष्टं श्यावीभवत्यसृक् । श्यावता तेन वक्रादौ सपन्तीव च कीटकाः।। द्वितीये अन्थो वेगे तृतीये मूधगारवम् । दुगधो दशविक्ल दश्चतुथ ष्टोवन बमिः ॥ संधिविश्लपण तन्द्रा पमे पर्वभेदनम् । दाहो हिमा च षष्ठे तु हृत्पीडा गात्रगौरवम || मूछा विपाकोऽतीसारः प्राप्य शुक्रं तु सप्तमे ।
स्कन्धपृष्ठकटीभङ्ग सर्वचेष्टानिवर्तनम् ॥" सपॉके पहले वेगमें मनुष्यका रक दुषित होकर काला पडता है और वह कालापन क्रमसे मुखादिकमें भी आजाता है। तथा शरीरके भीतर ऐमा मालुम पड़ने लगता है मानो कीडे चल रहे हैं रेंग रहे हैं । दूसरे वेगमें शरीरमें गांठे पड जाती हैं और तीसरे वेगमें शिर भारी होजाता, दुर्गध आने लगती और देशविक्लेद होजाता है। चोथे वेगमें मुखसे फमूकर गिरने लगता, वमन होता और सन्धिस्थानोंका विश्लेषण होने लगता है। पांचवें वेगमें पवस्थानोंका भेदन होने लगता, शरीरमें दाह होता और हिचकी आने लगती हैं। छठे धेगमें हृदयमें पीडा होने लगती, शरीर भारी होजाता ओर मुछी विक तथा सीसार होजाता है । सातवें वेगमें वह शुक्रतक पहुंचकर स्कन्ध पृष्ठ और कटीका भंग कर देता है और समस्त चेष्टाओंको निहाते-मृत्यु होजाती है।
१-काटी हुई जगहमें शीर्णता होता डाट पड जाना । २-अलग अलग होजाना-खिल जाना। ३-ग्रंथियोंका भिन्न २ होजाना।
अ. घ. ४६