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बनगार
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और भी कहा है कि:असणं पति दीहं ससंति विरहाणलेण उज्जति ।
सिविणेवि मुर्णिदसुईण हंति णियविणीमूढा ।। भोजन छोड देता, दीर्घ निःश्वास लेने लगता, और विरहानलसे तप्त भी होता फिर भी निताम्बानियों मोहित हुआ यह पुरुष मुनींद्रोंके सुखको खप्नमें भी नहीं पा सकता । अर्थात् वह मुनियोंकीसी क्रिया करके भी मैथुनसंज्ञाके वश हर तरहसे दुःखी ही है। , ! .
इन्ही उपयुक्त सब बातोंको ध्यानमें रखकर ग्रंथकार कहते हैं कि-ऐसा कौन मनुष्य है जो कि वृष्य पदार्थोंका भोग और उपयोग तथा कुशीलसेवा इन तीन बहिरङ्ग कारणोंसे और पुरुषवेदके उदयरूप अन्तरङ्ग कारणसे उद्भूत हुई मैथुन सज्ञासे स्वस्थ - सुखी हुआ हो या हो सकता हो ? अर्थात् सभी मनुष्योंको इसके । कारण दुःखका ही अनुभव करना पडता है।
... बहिरात्मा-शरीरमें ही आत्मबुद्धि रखनेवाले प्राणिगण जो कि कामके दुःखोंसे ऐसे अभिभूत होजाते है कि जिनका निवारण नहीं किया जासकता, उनके उस दुर्निवार अभिभवपर दुःखके साथ शोक प्रकट करते हैं:
संकल्पाण्डकजो द्विदोषरसनश्चिन्तारुषो गोचर,- ' च्छिद्रो दर्पबृहद्रहो रतिमुखो ही कञ्चुकोन्मोचकः । कोप्युद्यद्दशवंगदुःखगरलः कन्दर्पसर्पः सम,
ही वन्दृष्टि हठंद्विवेगरुडकोडापेत जगत ॥ १५ ॥ . यह कामदेव एक अपूर्व सर्पके समान है जो कि संकल्परूपी अण्डेसे उत्पन्न हुआ करता है। इस अङ्गना
अध्याय