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अनगार
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पणिदरसभोयणाए तस्सुवओगा कुसीलसेवाए। .
वेदस्सुदीरणाए मेहुणसण्णा हवे चउहिं ।। पुष्ट गरिष्ठ और सरस पदार्थों का भोजन करनेसे, तथा ऐसे ही जो कि कामके उद्दपिक या वर्धक हों उसका सेवन करनेसे, एवं कुशील पुरुषोंकी सेवा करनेसे, और वेद-नोकषायकी उदारणा होनेसे, अर्थाय इन चार कारणोंसे मैथुन संज्ञा उत्पन्न होती है।
निरुक्तिकी अपेक्षा भी मैथुन संज्ञा शब्दका अर्थ ऐसा ही होता है । मिथुन-दम्पति-स्त्री और पुरुष इन दोनोंके कर्मको मैथुन कहते हैं। किंतु रूढिवश उनका विशेष कम जो कि रतिसुखका अनुभव करने के लिये चेष्टा की जाती है उसीको मैथुन कहते हैं । संज्ञा शब्दका अर्थ बांछा होता है। अत एव मैथुनकी इच्छाको ही मैथुनसंज्ञा कहते हैं । अर्थात् चारित्रमोहनीय कर्मके उदयसे रागविशेषसे आक्रांत हुए स्त्री और पुरुषकी जो परस्परमें स्पर्श करनेकी अभिलाषाविशेष होती है उसीको मैथुन संज्ञा कहते हैं। किंतु यहां एक बात और भी है वह यह कि ऐसे रागयुक्त चाहे स्त्री और पुरुष ये दो हों अथवा दो पुरुष ही हों, यद्वा दो स्त्रियां ही हों; जो कि परस्परमें एक पुरुषके अथवा स्त्रीके स्तनादिक अवयवोंका मैथुनके अभिप्रायसे संघटन करें तो ऐसा सभी कर्म जो कि मैथुनकेलिये किया जाता है, उपचारसे मैथुन ही कहा जायगा। इसको लोकमें संभोग श्रृंगार कहते हैं । यथाः--
अन्योन्यस्य सचित्तावनुभवतो नायको यदिद्धमुदौ । .
आलोकनवचनादि स सर्वः संभोगशृङ्गारः ॥ ___ बढे हुए हर्ष या प्रतिसे युक्त दोनो सहृदय व्यक्ति जब परस्परमें अनुभव करते हुए आपसमें प्रेक्षण संभाषण आदि करते हैं उस समय उनका वह समस्त कर्म संभोगशृंगार कहा जाता है।
आहारादिक संज्ञाओंकी तरह यह मैथुन संज्ञा भी तीव्र दुःखका कारण है। यह बात आगम और अनुभव दोनों ही से सिद्ध है । यथाः
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खध्याय