________________
अनगार
३५५
अध्याय
४
काम अङ्गना और सङ्ग-स्रीसंसर्ग इन तीनोंके दोषों व अशौचका निरंतर विचार और आर्यसङ्गति तथा स्त्रीविरक्ति इन पांच भावनाओंके द्वारा हे मुमुक्षो ! तू अपने ब्रह्मचर्य व्रतकी वृद्धि कर
मात्रार्थ - ब्रह्मचर्यकी वृद्धि श्रीवैराग्यसे होती और इस वैराग्यकी उत्पत्ति व वृद्धि इन भावनाओंसे होती है; अत एव तपस्वियों को इनका निरंतर ही अभ्यास करना चाहिये । क्योंकि कामविकार और स्त्रियों तथा उनके संसर्ग में जो दोष - आत्माका अपकार करनेवाले धर्म-स्वभाव हैं उनका और उनकी अपवित्रताका विचार ही ब्रह्मचर्यको निर्मल बना सकता है। इसी प्रकार ज्ञान और तप आदिकी अपेक्षा जो वृद्ध हैं, उनकी संगतिमें रहना और सदा स्त्रियों में विरक्त भाव रखना भी ब्रह्मचर्यव्रतकी वृद्धिका कारण है । अत एवं इस महाव्रतको
सुरक्षित रखने व बढानेकेलिये साधुओंको स्वमित्र और उनसे सम्बन्ध रखनेवाले सभी भावोंसे त्रिरक्त रहन चाहिये । जैसा कि कहा भी है:
मातृस्वस्तातुल्यं दृष्टं सीत्रिकरूपकम् |स्त्रीकथा विनिवृत्तिर्या ब्रह्म स्यात्तन्मतं सतम् ॥
अपने से बडी अपनी बराबरकी और अपने से छोटी इन तीनो प्रकारकी स्त्रियोंको देखकर उनको क्रमसे
भी निवृत्त होना इसको ही सत्पुरुषोंने
माता बहित और लडकीके समान समझना और स्त्रीकथादिकसे
ह्मचर्यव्रत माना
है ।
यहाँ से आठ पद्योंमें कामके दोषाकों निरूपण करना चाहते हैं । किंतु इसले पहके योनि आदिकमें
रमण करने की इच्छा तीव्र दुःखको उत्पन्न करनेवाली है, इसी बातको उसमें प्रवृत्तिके निमित्तोंका कथन क रते हुए प्रकाशित करते हैं: -
張絲雞雞雞&&&&&&&路觀雞雞湯 蘿影殺
३५५