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जनगार
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स्तनादिकोंके स्पर्शका सर्शनेन्द्रिय के द्वारा, गीतादिकके मनोहर शब्दोंका श्रोत्रेन्द्रिय के द्वारा परिभोग करनेकी इच्छा मत कर । दूसरे, वम्तिमोक्ष-लिङ्गकी विकारक्रियाको तू मत कर ! क्योंकि लिङ्गकी विकाराक्रिया के त्याग करनेको ही तो ब्रह्मचर्य कहते हैं । अत एव ब्रह्मचर्यका पालन करने के लिये तू इस क्रियाको मत कर । तीसरे, वृष्य पदार्थीका सेवन मत कर । दूध वगैरह अवा अन्नमें उर्द वगैरह जो ऐसे पदार्थ कि शुक्रकी वृद्धि करनेवाले हैं उनका सेवन मत कर । चौथे, वृष्य पदार्थका ही नहीं कितु स्त्रीशयनासनादिकका भी सेवन मत कर । क्योंकि जिस प्रकार कामिनियोंके अङ्गके स्पर्शसे प्रीतिकी उत्पत्ति होती है उसी प्रकार उनके शयनासनादिक भी प्रीतिकी उत्पत्तिके निमित्त हैं । जैसा कि कामियों को होता हुआ देखते हैं । अत एव स्त्रीसम्बंधी शर्यन और आसनका भी सेवन न करना चाहिये-उनपर बैठना न चाहिये। पांचवें, तू अपनी दृष्टी को उनके वराङ्ग-योनिस्थानकी तरफ मत लगा। टिसे मतलब कवल द्रव्यचक्षुको ही नहीं किंतु भावचक्षुको भी मत लगा। क्योंकि उसका विचार भी रागोद्रेक तथा अब्रह्मका बडा भारी कारण है । अत एव उनके कामाङ्गको तू निगाहमें भी मत ला । छठे, तू उनका सत्कार-सम्मान मतकर । सातवें, वस्त्र माला आदि शृङ्गारसामग्रीसे उनका संस्कार-भूषण-शृङ्गार मत कर। आठवें तू अपने पूर्वानुभूत मैथुनका स्मरण मत कर । मैंने पहले अपनी कमनीय कामिनियों के साथ इस तरह और ऐमा रमण किया था ऐसा स्मरण मत कर । नोवें, आगामी-भविष्यत्के लिये रमणकी इच्छा मत कर । मैं स्वर्गीय अङ्गनाओंके साथ इस इस तरह से रमण करूंगा ऐसी कल्पना या आकांक्षा मत कर । दशवें, इन्द्रियोंको अभिलषित और मनोहर विषयों का सेवन मत कर।
भावार्थ-इन दश प्रकारके अब्रह्मभावोंका परित्याग करनेपर ही ब्रह्मचर्यकी सिद्धि हो सकती है। अत एव मुमुक्षु तपस्वियोंको इनका त्याग ही करना चाहिये ।
अध्याय
१-यहांपर शयन और आसन शब्दसे अभिप्राय जिसपर स्त्रियां सोती या उठनी बैठती हों उस पदार्थसे है। खट्टा-चारपाई अथवा प्रसिद्ध आसनका. ही अभिप्राय नहीं है।
अं. ध. ४५